शांति की ओर……
यादों के झरोखे से ——-
शांति की ओर
मैं कभी मग़रूरी नहीं हुआ, शत प्रतिशत सच है । परन्तु मुझमें आत्मविश्वास कूट-कूटकर भरा था और वह इसलिए कि भगवान के प्रति श्रद्धा, श्रम के प्रति विश्वास और कार्य के प्रति निष्ठा मुझमें बचपन से ही थे और आज भी हैं ।
और इसी की बदौलत मैंने संकल्प लिया था कि करने से क्या नहीं हो सकता है, असम्भव से असम्भव कार्य को सम्भव करके सफलता हासिल की जा सकती है ।
तो फिर किशोर वय से लेकर युवा वय की ओर बढ़ते हुए जो सफलता मैंने हासिल की उससे मेरे विश्वास को कुछ और ही सह मिला । फिर परिणाम स्वरूप एक निम्न वर्गीय परिवार का एक साधारण युवा होने के बावजूद मैंने बहुत ही बड़ी-बड़ी महत्वाकांक्षाएँ, ऊंची-ऊंची कल्पनाएँ व लम्बे-लम्बे सपने पाल लिये। फिर इन्हें संजोए हुए तन-मन-धन से अपने लायक कर्मक्षेत्र की ओर कूद पड़ा, लेकिन थोड़ी बहुत बस थोड़ी सफलता के बाद सफलता के सारे दरवाज़े मेरे लिए सदा के लिए बंद हो गए । सफलता तो एक झलक दिखाकर जो तब से ओझल हुई तो फिर अबतक नज़र नहीं आई । एक लंबा अर्सा हो गया, कई अन्तराल व कई घटनाक्रम गुजर गए, लेकिन आज भी वह सफलता जो मेरे कदमों पर लोटा करती थी, मैं जिसकी कद्र करता था, इज्जत बक्शता था, वह पता नहीं किस घने बादल की ओट में छुप गई कि वह आज तक मुझे नहीं दीखी ।
आशावादी हूँ, इसलिए दिल में उम्मीद के दीए अब तक जलाए रखे थे । परन्तु अब तो असम्भव-सा लगता है । बहुत टूट चुका हूँ, सच्चाई से बहुत दूर निकल चुका हूँ, आत्मविश्वास डोल चुका है, विश्वास ख़त्म हो चुका है, अपने आप से गिर चुका हूँ ।
ये मेरी उच्च महत्वाकांक्षाएँ, ये मेरी ऊंची उड़ान, ये मेरी कोरी कल्पनाएं मुझे खुशियाँ तो दे न सकीं । हाँ, इनकी बदौलत मैंने ढेर सारे ग़म, दर्द, दुख और उदासियाँ हासिल की हैं, जिन्हें अब तक कंधों पर लिए ढोए रहा हूँ…….और आज जब मेरी सुबुद्धि खुली है, सद्विवेक जगा है, आत्मज्ञान हुआ है तो पौराणिक ग्रंथ भागवत गीता के अन्तर्गत भगवान श्री कृष्ण की कही गई यह देववाणी- “कर्मण्ये वाधिकारस्ते मां फलेषु कदचिन:” मेरे दिलो दिमाग में बार-बार कौंध रही है और मैं शुरू की तरह एक बार पुन: संकल्प लेता हूँ कि, सच में मेरे अंदर “कला और साहित्य” है व मैं इसे पूजता हूँ तो एक प्यासा की तरह मृगमरीचिका की ओर भागना छोड़कर अपने कर्म को पूजा समझ के श्रद्धा, विश्वास व निष्ठा के साथ “कला और साहित्य”
को पुजते जाऊँ, इसकी सेवा करते जाऊँ और फल की कामना से कोसों दूर चला जाऊँ, बहुत
दूर, कोसों दूर……. !
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दिनेश एल० “जैहिंद”
23. 04. 2017