शहर
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शहर में मुझे तो शहर ढूंढे न मिला।
यहाँ था असभ्यताओं का सिलसिला।
गुनाहों के कब्र से निकलते लोग देखे।
उसीके यश में गाते,उछलते लोग देखे।
ठंढ़ी रात में पावों से पेट ढंके लोग देखे।
जूठन के लिए लड़ते –झगड़ते लोग देखे।
तड़पकर भूख से मृत,मैंने मेरा देह देखा।
मैं डरा किन्तु,डर को डरकर भी न फेंका।
टिकाये शव पे शहर को अपना पांव देखा।
मेरे अस्तित्व के शव को क्षत-विक्षत देखा।
इस शहर में दोस्तों,ऐसा भी मैंने ठौर देखा।
उजले वर्ण,मांसल जिस्म बिकते और देखा।
बिके लोगों के आस्था बिकते सौ बार देखा।
बिकते लोगों का है यह अजूबा संसार देखा।
प्रतिभा को जूते सिलते देखना है तो आइये।
अपनी परछाईं को यहाँ रोते–सिसकते पाइये।
गिद्ध की दृष्टि,स्यार की चालाकी,पशुवत हिंसा से लैस है यह।
स्वाभिमानी आत्माओं को देखकर तुरत खा जाता ‘तैश’है यह।
कुछ ग्रन्थ लिखकर क्षुद्रता व शुद्र्ता वे थोपते हैं।
शीर्ष पर टिकने-टिकाने वर्ण,जाति,धर्म को तौलते हैं।
जीवित रहने के नियम इस शहर में उसकी मर्जी।
मरेगा मृत्यु महल या फुटपाथ पर उसकी ही मर्जी।
मृत देह को भी कफन मांगते मेरे जैसे लोग देखे।
इस शहर की आत्मा है मृत, ऐसा कहते लोग देखे।
इसलिए
शहर जब सुनसान होगा
मैं आऊंगा तुझको ढूंढूंगा
तबतक के लिए दे दो रुखसत मुझे
इस बाबरे श्हर में अभी
पाना मुश्किल है मेरा जीवन तुझे।
किसी रंगीन सपने में खोया है यह॰
न जाने कैसा नशा करके सोया है यह।
सारी हस्ती यहाँ आपाधापी में है।
अंकित मानवता बंधी कापी में है।
यह हवा, यह गगन; सूर्य, तारे, शशि
निज ख्यालों में डूबे चले जा रहे
जो धरती जरा सुगबुगाए यहाँ
घास कटने लगे,पेड़ गिरने लगे
हो जाती हवा है ये जंगली यहाँ
इस जंगली हवा का नहीं अंत है
और रिश्ते भयावह करें क्या बयां
शहर जब सुनसान होगा
मैं आऊंगा तुझको ढूंढूंगा
तबतक के लिए दे दो रुखसत मुझे
दर्द से चीख़ते शहर में अभी
पाना मुश्किल है मेरा जीवन तुझे ।
रेल-पथ पर पड़ी लाश किसकी है यह!
यह मरा है जरा सुन तो,क्या-क्या कह!
छोडकर ग्रामांचल भागा था जब।
वह केवल नहीं सब अभागा था तब।
आसमाँ सूखी आँखों से रोता रहा।
अश्क में हर फसल को भिगोता रहा।
पानी था चाहिए, मेघ बरसा नहीं।
कैसे कह दें कि रोटी को तरसा नहीं।
जोरू को ले उड़ा यह शहर ऐसे कि
हर कदम पर रिश्ते बहुत से मिले।
पर,वही सह सकी न ऐसे रिश्तों के दर्द।
मौन रहकर वह शायद मिल लेता गले।
कुछ डिग्रियां कुछ कागज के, लेकर चले।
बिक गया किन्तु,बनिये के दुकान में।
आरजू इस तरह सारे सपने तथा,
हो दफन था गया इस श्मशान में।
शहर जब अनजान होगा,
मैं आऊंगा तुझको ढ़ूँढ़ूँगा
तबतक के लिए दे दो रुखसत मुझे
इस ढहते शहर में सचमुच अभी
पाना मुश्किल है मेरा जीवन तुझे।
हर दिशा मौन साधे चला जा रहा।
उसको एवम् वर्क में लगा जा रहा।
कोई इनको दिशा तो बता दे जरा।
मूढ़ सा संकल्प रास्ते में खड़ा।
सभ्यता के समय वह मसीहा सा था।
है उसने संवारा इसे लहू करके चुला।
आज मोड़े हुए मुँह कहाँ जा रहा!
आज अनुभव करे इनको कह तो जरा।
ये चौड़ी सडक,यह भव्य भवन।
किस पसीने को पीकर यूँ अकड़ा हुआ?
इनसे अनुनय-विनय है कहिये इन्हें।
आज वह हाथ बिल्कुल है जकड़ा हुआ।
हाथ करके बढ़ा ये उठावें हमें,
अपने रिश्ते का यह एक बड़ा फर्ज है।
अगर फर्ज अब ये समझ न सकें ,
कहिये इनको युगों का मेरा कर्ज है।
है सिमटता शहर फैलकर जा रहा।
मानवोचित क्रिया ठेलकर जा रहा।
शहर जब अणुबम से छितरायेगा।
मैं आऊंगा तुझको ढ़ूँढ़ूँगा
तबतक के लिए दे दो रुखसत मुझे
घृणा रोपते इस शहर में अभी
पाना मुश्किल है मेरा जीवन तुझे।
शायद सभ्यता है हो विकसित गई।
संस्कृति तथा हो परिमार्जित गई।
काले कौवे से कर्कश गला हो गया।
भगत बगुले की मानिंद नजर हो गया।
गिद्ध की दृष्टि से देखने है लगा।
लोमड़ी से धोखाधड़ी है मिला।
भेड़िये की तरह तन है गर्दन गया।
खूनी केहर से सीखा पैंतरा सब नया।
बिल्ली जैसे ही श्राप देता है यह।
पूरे घर का गला नाप देता है यह।
इस सभ्यता से अनभिज्ञ हम रह गये।
ऐसी संस्कृति से अनजान भी रह गये।
कल्पना कीजिये उस दिन की जरा।
रोयेगा सहानुभूति पायताने पड़ा।
प्रेम दुश्मनी के अर्थ में होगा प्रयुक्त।
शब्द सारे ही स्वार्थ से होगा संयुक्त।
शतरंज के मोहरे सा होगा चलन।
भृकुटी ताने हुए आदमी का मिलन।
नाग बनकर लगे लोग रहने यहाँ।
वन तो नागों का है हम जाएँ कहाँ?
वायदा क्या किया था सृष्टिकर्ता से हम।
हो जा रहे क्या-क्या कर्ता-धर्ता से हम।
शहर जब मरुस्थान होगा।
मैं आऊंगा तुझको ढ़ूँढ़ूँगा
तबतक के लिए दे दो रुखसत मुझे
सभी मूल्य खोते शहर में अभी
पाना मुश्किल है मेरा जीवन मुझे।
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