शहर के लोग हैं
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इस शहर को लूटने वाले इस शहर के लोग हैं।
लौह के मोटे कवच को काँच करदे ये लोग हैं।
लूटना फितरत है इनकी,लूट से बचने जतन,
कह के लूटे जा रहे, खत्म हो तो हो अमन।
अब नहीं अंगार को भी शर्म सा कुछ हो रहा।
क्योंकि जिन हाथों में माचिस है,शहर के लोग हैं।
जो बुझाने जा रहे हैं आग वे खुद भयंकर आग हैं।
और मनुष्यों की नस्ल में बदनुमा एक दाग हैं।
झूठ के चिकने तवे पर रोटियाँ लेते हैं सेंक।
सत्य को गुमनाम कर दे इस शहर के लोग हैं।
रोग से बचने की है अनिवार्यता,अनिवार्य से भी बड़ी।
परम्पराओं को निभाने की नहीं थी कोई मजबूरी अभी।
सभ्यता और संस्कृति के नाम पर दु:ख बाँटने वाले ये लोग।
इस शहर को लूटने वाले इस शहर के लोग हैं।
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