शहर और सहर
देखा शहर तुम्हारा, सहर होते कभी नहीं देखा
शाख – शाख पर उल्लू को बैठा उड़ता देखा।
चांदनी चौक के चौराहे पर, सफेदपोशों को भी
सूरज ढलते ही अंधेरी गलियों से गुजरते देखा।
इस सदी में भी, बर्बरता की निशानी यहां हमने देखी
किसी में भी नहीं नाखून काटने की बुद्धिमानी देखी।
शीशे के मकां में पड़े हैं, अणुओं का अकूत ढेर यहां
हालात कब उल्टे होंगे, नाहक हलाक होते हमने देखा।
कंकर- पत्थर को जोड़ -जोड़ कर ताजमहल बनाते थे
बिना मिहनत, बिना कमाए नोटों का बंडल बढ़ते देखा।
बिना मतलब खुदकशी करने का बढ़ता तेवर तो देखा
जिंदा रहने के लिए जीने का कोई तरीका नहीं देखा।
माटी के मोल बिकते हैं, अब इज्जत और आबरू यहां
आंखें झुक जाती है, तन का लिबास कटते घटते देखा।
देखा शहर तुम्हारा, सहर होते कहीं नहीं हमने देखा
‘घनश्याम’ लौटा मायूस, जिगर जो कहीं नहीं देखा।
***************************************
स्वरचित: घनश्याम पोद्दार
मुंगेर