‘शहरी जीवन’
‘शहरी जीवन’
शहरी जीवन भी क्या जीवन है ?
जिंदगी तो बसती है सिर्फ गाँवों में।
खुले आँगन के चौबारों में निर्भय होकर खेलना,
खेतों की हरियाली में विचरना ,
सखियों संग बतियाना,
पतली पगडंडी पर संतुलन बनाते हुए चलना।
शहरों में क्या रखा है ?
बदसूरत गलियाँ,बदबूदार हवाएँ ,नालियों की सड़न लिए हुए।
पर कोई करे भी तो क्या ? आखिर शहरों में है भी क्या!
जिसे देखा जाए, जो मन को भाए।
नीम-पीपल की छाँव नहीं ,
जहाँ बैठा जाए घड़ी भर सुस्ताने को ,
जी की बात लगाने को|
यहाँ तो बस कैफेबार में नाचती बालाएँ
या हुक्काबार में धुआँ उड़ाते युवक-युवतियाँ ,
सिनेमा हाल में अश्लीलता से भरी फ़िल्में,
संस्कृति को गिराता आचरण।
बच्चों के खेलने का मैदान नहीं ,
गुल्ली-डंडा,रस्सा-कस्सी का आनंद नहीं।
बस कंप्यूटर के नीरस और हिंसात्मक खेल,
खिड़कियों के शीशे तोड़ने वाला क्रिकेट,
दूसरों को धकियाकर आगे निकलने की प्रतिस्पर्धाएं,
प्रेम के नाम पर वासनाएं, कोरी वासनाएं।
कौन समझाए इन्हें, वास्तविक प्रेम क्या है !
राधा-श्याम का मिलन क्या है !
किसी अपने की छुअन क्या है!
ये शहरी का जीवन भी क्या जीवन है ?