शहनाइयों में
ग़ज़ल
221-2121-1221-212
खुशबू किसी की आज भी पुरवाइयों में है
वो साथ मेरे चल रही तनहाइयों में है
करता है तू दिखावा तो मस्ती का हर घड़ी
दर्दीली धुन क्यों तेरी शहनाइयों में है
जो सोने की चिरैया मेरे मन में क़ैद है
फिर क्यों चहक रही घनी अमराइयों में है
वो दूर सिर्फ हो गई दुनिया की नज़र में
दिखती मुझे यूँ पास ही परछाइयों में है
लो प्रेम नाम पर तो सुधा शोर फिर मचा
गंधिल वो आज भी उन्हीं रुसवाइयों में है
डा. सुनीता सिंह ‘सुधा’
4/1/2023