शस्त्र संधान
खुद को सिंह तुम कहते हो
पर नखो को है काट दिया
रणधीर क्या बनोगे
जब शस्त्रों को ही त्याग दिया
मैं पूछता हूं
ऐ धरती क्या नभ में तेरी
पूर्व सा अब तेज नहीं
जना जिसने अर्जुन को
क्या अब तुझमें वो ओज नहीं
मैं पूछूं तुमसे , है पौरुष ?
क्या शत्रु को चित्त कर पाओगे ?
इस अधर्म की नीतियों में
क्या शस्त्र संधान कर पाओगे ?
क्या है वो विद्युत तुझमें
जो आसमान को फाड़ सके
क्या है वो तुझमें गहराई
जो अंगारों को पान सके
जय पराजय की भय छोड़
निसस्त्र अभिमन्यु बन पाओगे
स्व शीश को हाथ लिए
क्या दो कदम चल पाओगे
अरे छोड़ो इन व्यर्थ की बातों को
तुमसे कुछ ना हो पाएगा
रातों को जग के बस
मर्यादा को लांग सके
ऐसी अग्नि बची है तुममें
जो पुरुषत्व को ही खाक सके
मर्द की खाल पहनने वालों
सुन लो
उस मस्तक में शौर्य नहीं
जो रक्त तिलक ना पाया हो
उस भुजा की गाथा नहीं
जो युद्ध से कतराया हो ।
@ अभिषेक