शव
ना जाने क्यों मेरी मरने के बाद
जो देखने नहीं आते थे
वो आंसू क्यों बहा रहे है
अपनी आंसुओं की बारिश से
मुझे नहलाये क्यों जा रहे हैं
आज मैं हैरान हूं देख कर परेशान हूं
जो मेरे दुख में कभी आए नहीं थे
वो छाती पीट पीट कर रोए जा रहे हैं
आज बड़े प्यार से मुझे नहलाए जा रहे हैं
इत्र पर इत्र लगाए जा रहे हैं
चार कंधों वाली पालकी पर
बड़े प्रेम से मुझे सुनाए जा रहे हैं
जिसको कभी बुलाने पर आया नहीं था
वो ढोलक झाल बजाए जा रहे हैं
गजब तो उस दिन हुआ
मेरे चौथे के पहले ही बंटवारे की बात किए जा रहे थे
तब समझ में आया
मुझसे नहीं मेरे दौलत से प्यार किए जा रहे थे
सुशील चौहान
फारबिसगंज अररिया बिहार