शवदाह
शवदाह करने आया वो, घाट में
ग्लानि नहीं थी, उसे अपने-आप में।
बचपन बिताया था, जिसकी छाँव में
उसी को जलाने, आया वो गाँव में।
साँसे जुड़ी थी कभी, जिसकी श्वास में
वही साँस लूट गयी, उसकी याद में।
जग देखा था कभी, जिसकी आँख में
वही नज़रें चुभने लगी, उसको बाद में।
भूखी पड़ी थी माँ, तन्हा मकान में
कहीं महफिलें सज रहीं थी, शाम में।
आती थी नींद जिसे, लोरी की तान में
उसके मीठे बोल को, माँ तरसी बाद में।
मलती थी तेल वो, जिसके पाँव में
त्यागा था उसने हीं, अंतिम पड़ाव में।
अब कहता है, ब्रह्मभोज करूँगा, खाएंगे ब्राह्मण माँ की याद में
तस्वीर टांग पूजा करूँगा, पाऐगी स्वर्ग वो, मृत्यु के बाद में।
ऐसे प्रश्न उठते, हर दिन समाज में
जिनका उत्तर ले, कोई आया ना सामने।