“शर्म मुझे आती है खुद पर, आखिर हम क्यों मजदूर हुए”
मेरी कलम से…
आनन्द कुमार
तुमने बोला हम ठहर गये,
न गांव गये न शहर गये,
फिर क्यों ऐसे हालात हुए,
जो उम्मीद के रास्ते बदल गये।
इल्जाम लगाऊं क्या तुम पर,
गलती खुद का है ठान लिया,
जब मरना मुझको वैसे भी है,
कलेजे के टुकड़े को थाम लिया।
मत देखो पांव के मेरे चप्पल,
न पैरों के छाले का दर्द समझो,
भीड़ की गठरी बने हैं जो हम,
इस मजबूरी का आलम मत समझो।
बात सवा सौ करोड़ की करते हो,
हम मुठ्ठी भर ही तो लोग फंसे थे,
लेकिन हर सपने सबके चूर हुए,
फोटो तो वायरल खूब हुए,
लेकिन रोटी के लिए मजबूर हुए।
गलती तेरी कुछ भी नहीं,
न शिकवा शिकायत है तुमसे,
शर्म मुझे आती है खुद पर,
आखिर हम क्यों मजदूर हुए।