शर्माजी के अनुभव : पराश्रित
ढलती शाम और पार्क का किनारा
सुकून की तलाश में बैठा मैं बेचारा
स्वार्थियों के हुजूम दुनिया मे छाये है
दर्द सुनना भी अब एक व्यवसाय है
मेरी तरह तन्हा है, पर चिड़िया तो गाती है
क्या जिंदगी है, खाती है, पीती है, सो जाती है
एक मैं हूँ जो सुकून के लिए भी पराश्रित
अभी कुछ हुआ जिसे देखकर मैं था चकित
एक वृद्ध आये मेरे पास ही आकर बैठे
हम दोनों ही चुप थे मैं आदतन वो दुख सहते
देखकर लगा जैसे छू लूं तो रो देंगे अभी
दुख बढ़ता गया हो और कंधा नही मिला कभी
हिम्मत जुटा कर पूछ लेना चाहता था मैं
कि तभी एक छोटी गेंद ने चौका दिया हमें
कुछ पल बाद एक नन्ही परी आई
बच्ची से नजर मेरी हट नही पाई
बोली मेरी बॉल लेने आई हूँ मैं
कहकर जैसे शहद घोल दिया हो कानो में
बॉल लेकर वृद्ध की आंखों में झांक गई
रो रहे है अंकल, कहकर आंखे नही दिल तक भांप गई
वृद्ध फफक पड़े उसके कदमो में सर रखकर
बच्ची भी रो रही थी साथ उनका सिर सहलाकर
कुछ पल में गुबार जब ठंडा हो लिया
बोले जाओ खेलो अब मैं ठीक हूँ बिटिया
छुटकी चली गई मुस्कुराकर
वृद्ध अब ठीक थे किसी बोझ को बहाकर
हिम्मत कर पूछ लिया मैंने चाचा क्या मिला आंसू बहाकर
बोले अभी लौटा हूँ मैं जन्नत तक जाकर
जरा खुलकर कहिए चाचा, मैं कुछ समझा नही
बोले ये आंसू प्यार थे मेरी बेटी को जो कभी पहुंचे नही
चाचा क्या बेटी आपकी बहुत दूर गई
बोले अरे नही वो अपने घर से भाग गई
ये आंसू संभाले थे उसकी बिदाई के लिए
इन्हें साथ लेकर अब बूढ़ा कैसे जिये
आंसू नही थे बोझ थे मुझको थकाते थे
प्यार कम रह गया मेरा हर वक़्त जताते थे
अब स्वतंत्र है वो तो पराश्रित मैं भी नही
इस अर्थहीन पानी का अर्थ कुछ भी नही