* शरारा *
डा . अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
* शरारा *
अरमानों को जला कर जो चले जातें हैं
तनहाइयों में अक्सर वे ही बहुत याद आतें हैं ||
युं तो यादें कहाँ छोड्ती हैं पीछा कभी हमारा
तिल तिल सुलगता रह्ता है गुलिस्तां ये दर्द का मारा ||
तोते सा पालतें हैं ख्वाबों सा ढालतें हैं उन पलों को सब
रोते हैं याद करके वो वक्त जो साथ था गुजारा ||
उम्मीद कहाँ छुटती होगी यारों बताओ तुम ही
बचपन की मोहब्बत का जिसने भी देखा हो वक्त प्यारा ||
मासूमियत *अबोध * की के संजों न पाया उस गुलाब को
खुदा के फजल से जो खिला था किस्मत का वो शरारा ||