शब्द वाणी
वाणी,शब्द
कभी आग की अंगारा लगती हो,
तो कभी शीतल पानी ।
कौंआ की कर्कश बोलीं
तो कभी कोयल सी मीठी
वाणी ।।
मौनव्रत में हे वाणी ,माटी की तुरंत लगती हो।
कभी पराया अनजाना,तो कभी अपना स लगती हो।।
आम की अमराई है,या बरगद की छाया।
काठ की कठपुतली है,या धातु की काया।।
निद्रा वस्था में रहती है,या चकमा देकर भाती है,।
कभी पराया अनजाना,तो कभी अपना सा लगती हो।।
ग्रिष्म की अंगारा हो या वर्षा की पानी।
शीतल की शीतलता हो या,बसंत की रानी,
तुम्हीं बताओ कौहो तुम,एक माया ही लगती हो।
कभी पराया अनजाना, तो कभी अपना सा लगती हो
शब्द जाल में मुझे फंसाकर,क्यों रूप बदलकर आती हो।
कवि हृदय के धड़कन में,क्यों लेखनी बनकर तड़पाती हो
उलझ गया हूं शब्द जाल में,लेखनी भी रूकती है।
क्रोधाग्नि की महाज्वाला, मेरे नजरों में झुलती है।।
साहित्य के इस महासागर में ब्याकरण बनकर रहती हो।।
कभी पराया अनजाना तो कभी अपना सा लगती हो।।
नौ रस में तुम समाकर,दिल में आनन्द भर्ती हो।
साहित्य मंच में हे देवी,देव अपस्सर से जचती हो।
कभी पराया अनजाना तो कभी अपना सा लगती हो।।
रस छंद अलंकार सजाकर,दोहा सोरठा चौपाई की रानी,।
बहुत सुन्दर लगती हो,ताल ,धमाल, कव्वाल की वाणी।।
कभी सिंह की दहाड़,तो कभी तोते की बोली बनती हो।।
कभी पराया अनजाना तो कभी अपना सा लगती हो।।।