शब्द बिकते नहीं
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शब्द बिकते नहीं इसलिए दुखित हो क्या!
शब्द झुकते नहीं इसलिए व्यथित हो या?
डरते नहीं तुम्हारे शब्द हैं सो डरे हो क्या?
झरने सा झरते तुम्हारे शब्द, करे हो क्या!
सारे अट्टहासों के दर्द में जन्मे लोग हो तुम,
सारे पीड़ाओं में हंसी चुनते हुए लोग हो तुम,
सारे गीतों में खनकते हुए तुम्हीं लोग हो तुम।
लोगों को उनके राह दिखाते हुए लोग हो तुम।
कथाओं में उनके शौर्य, सौंदर्य तुम्हीं बता जाते।
नानियों के मुख से नयी पीढ़ियों को सुना जाते।
दादियों से जीवन-युद्ध के व्यूह को कहला जाते।
पिताओं के कठिन संघर्ष तुम्हीं तो समझा जाते।
शब्द व्याप्त है ब्रह्मांड में कवियो, ढूंढो,लाओ।
उनके वार्तालाप के ढँके अर्थों को खोलें आओ।
रचना के हर देह में बसा है ईश्वर का स्वरूप।
शब्द रचता है ‘कुछ नहीं’ से सब कुछ का रूप।
शब्द से न थको शब्द कभी थकता है नहीं।
देखे को कहे और न देखे को गढ़ता है यही।
शब्द वे नहीं केवल कहे, सुने जाते जो हैं।
रंग,रेखा भी विलक्षणता से भरे जाते जो हैं।
तुम्हें शब्द का वास्ता देने का मुझे अधिकार नहीं।
आग्रह करने का मन है करता कोई उपकार नहीं।
शब्द सजते रहें तेरी तूलिका, लेखनी से प्रिय।
जब सामने आए तो जाए हमें प्रफुल्लित कर।
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