शब्द चिंगारी
क्यों नहीं जला लेती शब्दो मे चिंगारी सी
उठा ले तू जजबात अपने अंदर तूफान से
बार- बार शब्दो को चिंगारी की
ज़रूरत ही नहीं पड़ती कुछ बोलने की
बस कलम उठा और भर उसमें हुंकार सी
शब्दो से लगा सच्चाई की चिंगारी सी
मैने अपने अंदर,भी भी देखा है शब्दो मे
एक दावानल सा जो रखता है चिंगारी सी
एक आग छुपा रखी है शब्दो की अपने अंदर
उठाई कलम ओर लिख डाले अपने जजबात
वो चिंगारी दबा रखी है अंदर निकाली शब्दो मे
लेखनी को धार दे आवाज बुलंद की रूढ़ियों की
समाज मे फैली कुरीतियों की ,दुर्बल की,असहाय की
आवाज बनती है लेखनी जब चलती है सच्चाई की राह
जमाना सुनता है उसको मेरे अंदर जो ज्वाला है
उसको लिखने की कोशिश करती हूँ
दुनियां जब उसे कुरेदता है,दुख रूपी घावों को
तो शब्द बनते है मरहम के उनके लिए
दिल की आवाज हवा का काम करती हैं ओर
चिंगारी सी भड़कती है गलत को देख कर
चिंगारी का रूप लेते है मेरे शब्द मेरे जज्बात
भड़क उठती है शब्दो की चिंगारी मेरी लेखनी से
डॉ मंजु सैनी
गाजियाबाद