शब्द और अर्थ
एक बार यूँ ही बैठे – बैठे शैलेन्द्र की अपने मित्र रवि से एक दार्शनिक चर्चा हुई की शब्द महत्वपूर्ण है की उसका अर्थ ,शैलेन्द्र का कहना था की शब्द महत्वपूर्ण है बिना किसी शब्द के उसका अर्थ कहाँ हो सकता है ? शैलेन्द्र कहता गया की मित्र देखो यह गुलाब उद्यान में लगा हुआ है , मैं कह रहा हूँ की ये मुझे बहुत अच्छा लग रहा है , इसका रंग इसका रूप अत्यधिक चित्ताकर्षक है , मैं ये शब्द तुमसे बोल रहा हूँ तभी तो तुम समझ रहे न की ये पुष्प मुझे बड़ा मनोहारी लग रहा …तभी तो तुम समझ रहे न मेरी आसक्ति कहीं न कहीं इस पुष्प में है |
रवि काफी देर शैलेन्द्र को सुनने के पश्चात् कहता है – मित्र तुम्हारा ये कहना की शब्द के बिना अर्थ हो ही नहीं सकता ये तर्कसंगत नहीं , मैं मानता हूँ की शब्द और अर्थ एक दूसरे के पूरक हैं लेकिन अर्थ शब्दों के आधीन नहीं है हम कभी – कभी कुछ नहीं बोलते लेकिन हमारे हाव – भाव से बहुत अर्थ निकल जाते हैं , जैसे मित्र हम हॅसते हैं तो आवश्यक नहीं की हम प्रसन्न हैं तो ही हंस रहे ….कभी कभी हम किसी के ऊपर कटाक्ष में हँसते हैं ..कभी कभी हम उदास होते हैं तो हम अपने हालात पे ही मुस्कुरा देते हैं लेकिन इसमें हम बिना शब्दों के ही हाव भाव से ये सामने वाले के समक्ष अर्थ प्रस्तुत कर देते हैं की हमारे मन में क्या चल रहा , अब मित्र देखो तुमने ही कहा ये पुष्प बड़ा ही सुंदर है , यदि तुम ये न भी बोलते तो मैं समझ जाता की ये तुमको बड़ा मोहक लग रहा क्योंकि तुम इस पुष्प को बड़े ही लगाव और तन्मयता से और प्रशंसा की दृष्टि से देख रहे थे , मेरी बातों का ये अर्थ न निकलना मित्र की मैं कहना चाहता हूँ की शब्द महत्वहीन है …हमें बोलने की आवश्यकता नहीं लेकिन हाँ बस इतना समझाना चाहता हूँ की अर्थ शब्दों के आधीन नहीं | इतने में पियोन चाय ले के आ जाता है दोनों के सामने … शैलेन्द्र मुस्कुराते हुए चाय के कप की तरफ आँखों से उठाने का इशारा करता है …इस पे दोनों ही मित्र हॅसने लगते हैं |
द्वारा – नेहा ‘आज़ाद’