केहरि बनकर दहाड़ें
शब्दों में ही ब्रह्म बसे
समझा गए हैं सयाने
सुर,लय और तालबद्ध
हो ये बन जाते तराने
कभी किसी प्रेमी के लब
पर थिरक थिरक इतराते
कभी विरह से पीड़ित मन
की अंतर व्यथा सुनाते
कभी कभी नटखट बच्चों
के बन जाते हमजोली
कभी उस बाप के दर्द कहें
जो विदा करे बेटी की डोली
मां के ममत्व को स्वर देते ये
उकेरें भाई का भी अनुराग
निर्गुण बनकर जन जन को
दिखाते जीवन के सद्मार्ग
जांबाजों के नारों में ये नित
सीमा पर केहरि बनके दहाड़ें
श्रम से विह्वल धरतीपुत्रों के
खेतों में पुरवाई की धुन पसारें
तीनों देवों में ब्रह्म की महिमा
जितनी व्यापक और अनंत
वैसे ही शब्दों के अर्थ और
चमत्कार का नहीं कोई अंत
मां वीणा पाणी से अर्ज नित
करता रहता हूं सुबह शाम
शब्द कोष को विस्तृत करो
मां रचाओ कुछ नयनाभिराम