शब्दों में ही ढूंढता चैन
कवि मन होता बेचैन
शब्दों में ही ढूंढता चैन।
भावों से भरा लेकर चित
कल्पनाओं के बन जाते मीत।।
सूर्य की तपिश या हो बरसात
नदी , नदीश की भी क्या बिसात।
हो अंबर या धरती
इनकी लेखनी से सजती संवरती।।
देखे चांद में नायिका का चेहरा
भादो में पहना दे नायक को सेहरा।
आघात, उल्लास या जब कवि मन रोए
उरतरंगे लेखनी बन कागज पर लेती हिलोरे।।
नेता या हो जनता
नहीं किसी से कवि मन डरता।
बात लिख जाते है खरी
जो सोचो उसे फर्क न पड़ता ।।
मुफलिसी की हो खलिश
या बसंत की हो कशिश।
साहित्य सागर से चुन शब्दों के मोती
रच जाते यह अनुपम कृति।।
दीपाली कालरा