शब्दों और भावों का रण
हृदय का अभिमान ढूंढ़ता
अधरों का जलपान ढूंढ़ता
शब्दों और भावों के रण में
रोज़ नया मैं गान ढूंढ़ता
नए-पुराने प्रतिमानों से
कुछ अपने कुछ मेहमानों से
समझौता कर चलता हूँ मैं
जीर्ण-शीर्ण उपमानों से
शब्दों के इस गठबंधन में
नव-रचना संसार ढूंढ़ता
शब्दों और भावों के रण में
रोज़ नया मैं गान ढूंढ़ता
मुझको भी अब बढ़ने दो
अंतर में झंझा पलने दो
चाहत है भाव-लहरियों को
उठने डॉ और गिरने दो
टेढ़े-मेढ़े गलियारों में
मेरा मैं उत्थान ढूंढ़ता
शब्दों और भावों के रण में
रोज़ नया मैं गान ढूंढ़ता
ये विष-अमृत के प्याले हैं
ये शब्द बड़े मतवाले हैं
कभी ढल गए मेरे साँचे
तो कभी मुझे भी ढाले हैं
अतृप्त हृदय की तृप्ति हेतु
भावों से पूर्ण पान ढूंढ़ता
शब्दों और भावों के रण में
रोज़ नया मैं गान ढूंढ़ता
महेश कुमार कुलदीप
जयपुर, राजस्थान