शत्रु का करना है संहार !
शत्रु का करना है संहार !
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हे भारत के कर्णधार !
नवनीत ! सुंदर ! हे सुकुमार !
आज देख देश, कर तनिक विचार,
क्या नहीं विलुप्त सभ्य संस्कृति-संस्कार !
विभिन्न दस्युओं म्लेच्छों पर, हो अचूक सटीक वार ;
आज शत्रु का करना है संहार !
युगों-युगों की स्वर्णिम परंपरा का स्नेह-स्वर,
वर्षों से सींचित तप-त्याग भास्वर ,
वह शाश्वत पुरातन दिव्य पावन सुमनोहर ,
बहुत आहत-आक्रांत प्रहर-प्रहर !
खण्ड-खण्ड धरा विघटित , कर अखण्ड प्रसार ;
शत्रु का करना है संहार !
गंगा-यमुना-नर्मदा आहत नदीसंस्कृति ,
गोदावरी-कावेरी करती पुकार ;
हे भारत के धीर शौर्यधार !
लुप्तप्राय सरस्वती, करो उद्धार !
संतप्त सिन्धू आतंकित बहुत,
ले समेट अपने में विस्तार ;
शत्रु का करना है संहार !
सप्तद्वीपों की चीर-संस्कृतियां बिलखती ,
आहत-आक्रांत, करूण विलुप्त स्वर से ;
सिमटी रक्तरंजित असंख्य अध्यायों से ,
शताब्दियों से सहमी दग्ध भंवर से !
स्वत्व जगाकर हे धीर-वीर ! ले समेट कर अंगीकार ;
शत्रु का करना है संहार !
अखण्ड भारत अमर रहे
✍? आलोक पाण्डेय ‘विश्वबन्धु’
पौष शुक्ल तृतीया ।