शक का ज़हर
चांद से कहा चांदनी ने,
करतें हो प्रेम क्या हमसे,
दिलरुबा मेरी मेहबूबा,
करतीं ऐसे प्रश्न क्यों??
शंका है मुझे तुम्हारे नियत पे,
क्या झूठ बोल रहे हो मुझसे।
सपनों में भी ना सोचता कभी,
तुझसे करने बेवफाई।
फिर उत्तर दो सच सच,
खोए रहते तुम कहां??
ऐसा क्यों पुछती हो,
आखिर शक क्यों करती हो?
ना जाने क्यों आज-कल,
भरोसा नहीं मुझे किसी पे।
ऐसा ना कहो जानेमन,
हम है सिर्फ तुम्हारे ,तुम्हारी कसम।
बस करो अब ना बोलो कुछ,
हम कर लेंगे जांच पड़ताल खुद से।
क्या देखा ऐसा कल,
सर चढ़ गया इसके शक का ज़हर,
पिलो तु प्याला प्रेम अमृत का,
अब ना जाउंगा कहीं?
वैसे भी बित चुकी है उम्र हमारी,
फायदा नहीं जा के कहीं।
बंद करो तुम अपना बकबास,
जाओ सो जाओ हो गई रात बहुत।