व्याकरण सुंदरी*
घुँघरू तेरे छन्द सुनाए,
हैं होठ तेरे मधुशाला।
नाम अनेकों संज्ञा लेके,
वर्णों की पहनी माला।
ध्वनि करधन के शब्द बने,
तू सौंदर्य की पर्यायवाची।
लचक कमर से रस बरसे,
अलंकारयुक्त मयूरी भाती।
नहीं है अतिशयोक्ति कहीं,
कहने में व्याकरण सुंदरी।
चंचल,चपला,चाँदनी,चमेली,
तू अनुप्रास से भरी पड़ी।
संज्ञा से फीके पड़ जाते,
आते जो आगे सर्वनाम।
और ढूंढे नहीं मिल पाते,
मुस्कानों के प्रविशेषण नाम।
जस सूर्योदय कपोल दमके,
रक्तमणि उपमा लगे भली।
जुल्फ लटें मंडराए ऐसे,
भौहों से विस्मय तीर चली।
आकृति डमरूघनाक्षरी जस,
कम पड़ जाते हैं विशेषण।
अदा समानार्थी शब्दों जस,
वहाँ श्लेष का हो अन्वेषण।
उपसर्ग भी चिन्तित होते,
कि कैसे बैठे आगे तेरे।
और प्रत्यय प्रेमी बनकर,
भाव भंगिमा को हैं घेरे।
रूपानंद की संधि सजी है,
है चन्द्रबिन्दु ललाट सोहे।
बल देते निपात भी तुझको,
मृगनयनी तो समास मोहे।
आंखों का तारा हो मेरी,
मुहावरों की प्यारी रानी।
आस लगाये विलोके धरा,
नैनो में भरदो शर्म का पानी।
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अशोक शर्मा, कुशीनगर,उ.प्र.
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