व्यवस्था परिवर्तन की हुंकार भरता साझा काव्य संग्रह – ‘व्यवस्था पर चोट’
सामाजिक समस्याओं को सामने लाने के कई तरीके हो सकते हैं, जिनमें लेख, समाचार पत्र की ख़बरें, कहानी, कविता, नुक्कड़ नाटक, प्रिंट मीडिया, शोध कार्य आदि। मानव जीवन के प्रारंभिक दौर से ही साहित्य ने समाज के प्रतिबिम्ब के रूप में अपनी भूमिका निभाई है। जहाँ तक साहित्य की बात है तो पद्य साहित्य गद्य की तुलना में जनमानस को अधिक आकर्षित करता है। पद्य साहित्य में गीत, गजलों, कविताओं, रागनियों आदि को मुख्य रूप से सम्मिलित किया जाता है। पद्य साहित्य कर्णप्रिय तो होता ही है, वहीं लोगों की जुबान पर अपनी अमिट छाप भी छोड़ जाता है। ‘व्यवस्था पर चोट’ साझा काव्य संग्रह इस दौर के अन्य साझा काव्य संग्रहों से कई मायनों में अलग है। इस काव्य संग्रह में दलितों एवं वंचितों की प्रत्येक समस्या से सम्बंधित कविताएँ शामिल हैं। इसमें वरिष्ठ और नवोदित रचनाकारों की रचनाओं का समावेश होना भी इसे अनूठा बनाता है, ये रचनाकार देश-दुनिया के अलग-अलग कोने से सम्बंधित हैं। जिससे हमें देश के हर कोने में दलितों के साथ हो रही अमानवीय घटनाओं की जानकारी मिलती हैं। वरिष्ठ रचनाकारों में ओमप्रकाश वाल्मीकि, सूरजपाल चौहान, डॉ. सुशीला टाकभौरे, बाबूराम पाहिवाल, जयप्रकाश वाल्मीकि, डॉ. पूनम तुषामड आदि की कालजयी रचनाएँ शामिल हैं। नवोदित रचनाकारों में डॉ. राधा वाल्मीकि, लाल चंद जैदिया, हंसराज भारतीय, धर्मपाल सिंह चंचल, डी.के. भास्कर, अरविन्द भारती, कुलदीप वालदिया प्रजापति, हंसराज बारासा, मदनलाल तेश्वर आदि की रचनाएँ अंकित हैं। इस संग्रह में कक्षा आठ की छात्रा कुमारी इंदु उम्र के हिसाब से सबसे छोटी रचनाकार हैं। इंदु की रचना ‘यह व्यवस्था ठीक नही’ बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ जैसी पहल पर सवाल खड़ी करती हैं। वरिष्ठ रचनाकारों की रचनाएँ जहाँ आपको पूर्व के समय की समस्याओं से अवगत कराएंगी वहीं नवोदित रचनाकारों की रचनाएँ वर्तमान परिवेश की पृष्ठभूमि से सम्बंधित हैं। इस काव्य संग्रह में आप मशहूर हिंदी उर्दू शायर प्रदीप टाँक ‘मायूस’ की रचनाओं को भी पढ़ेंगे। इसके साथ-साथ आप राजस्थानी कवि चेतन दास पण्डित की कविता ‘अछूतों की पुकार’ में शोषितों के दर्द को पढ़ेंगे। वरिष्ठ लेखक कस्तूर सिंह ‘स्नेही’ जी की रचना ‘गणतंत्र दिवस’ में आप दलितों की आज़ादी की सच्चाई एवं उनकी दैनिक समस्याओं के बारे में जानकारी पाओगें। प्रस्तुत पुस्तक की प्रत्येक कविता में सामाजिक व्यवस्था द्वारा दलितों एवं पिछड़ों को दिया गया दर्द स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। निम्नलिखित पंक्तियों में दलितों और पिछड़ों को किस तरह हर सुविधा और वस्तु से वंचित रखा गया है, का स्पष्ट चित्रण है। जो समाज में फैली सामाजिक अव्यवस्था की ओर इशारा करती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता ‘ठाकुर का कुआँ’ की अंतिम पंक्तियाँ :-
कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत –खलिहान ठाकुर के
गली –मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या ?
गाँव ?
शहर ?
देश ?
सूरजपाल चौहान जी की कालजयी रचना ‘ये दलितों की बस्ती है’ समाज को वंचितों और शोषितों की वास्तविक सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, शैक्षिक और राजनीतिक स्थिति दिखाने के लिए पर्याप्त है :-
सूअर घुमते घर आंगन में
झबरा कुत्ता घर – द्वारे
वह भी पीता, वह भी पीती
पीकर डमरू बाजे
भूत उतारें रातभर
बस रात ऐसे ही कटती है
ये दलितों की बस्ती है।
भारतीय समाज हमेशा से ही रूढ़िवादी रहा है, इसमें वर्ण व्यवस्था को सर्वोच्च माना गया एवं जिसका खामियाज़ा वर्ण-व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर, जिसे शूद्र कहा जाता है, को भुगतना पड़ा है।
डॉ. सुरेखा की कविता समाज का स्पष्ट चित्रण करती है –
झाड़ू,पंजर,तसला
नहीं थी मेरी पहचान
मगर बना दी गई
बना दी कुछ इस तरह कि
दिन बदले साल बदले
बदली जाने कितनी सदियाँ
पर न बदले ये पहचान के हिस्से
संग्रह में कई रचनाएँ दलित और शोषित समाज की लाचारी पर केन्द्रित हैं, वहीं कई रचनाएँ व्यवस्था पर चोट करने को आतुर हैं। डॉ. राधा वाल्मीकि की दलित महिलाओं की स्थिति पर केन्द्रित कविता ‘दलित की बेटी’ संग्रह में शामिल है, जो कि महिलाओं की दयनीय स्थिति के साथ- साथ उनके सशक्तिकरण की वकालत करती है। संग्रह में उनकी अन्य कविता ‘व्यवस्था बदलनी चाहिए’ की पंक्तियाँ व्यवस्था परिवर्तन की बात करती है :-
सही उपयोग से अपने मत के
शासक वर्ग बनाना है,
चंद लालच के टुकड़ों में
खुद को नहीं डिगाना है,
समता मूलक हो समाज
ऐसी सरकारें चाहिएं
असमान अस्पृश्यता युक्त
व्यवस्था बदलनी चाहिए।
लालचंद जैदिया जी अपनी रचना ‘भ्रम’ में जाति विशेष को सफाई कार्य छोड़कर शिक्षा की ओर अग्रसर होने की बात करते हैं :-
पिछड़ गए हैं देखो हम
अब तो कलम पकड़ो
करना है गर विकास
तो शिक्षा से नाता जोड़ो
हंसराज भारतीय जी दलितों में साहस और शौर्य जागृत करने के लिए महान दलित योद्धाओं की कहानी कविता के माध्यम से प्रस्तुत कर समाज को जगाने का कार्य करते हैं :-
मातेन गुरु, सोना देवी के चलते रण में वार लिखूँ
बिल्ला, मनुआ, बाबा पीरु के भाले की मार लिखूँ
औरंगजेब की सेना काटी माँ गजना की कटार लिखूँ।
जाति भारतीय समाज की अमिट सच्चाई है। डी.के. भास्कर जी ने जाति को ‘ब्रह्म जोंक’ की संज्ञा दी है।जाति एक ऐसी सच्चाई है जिसका लगातार विकास हो रहा है और दलित समाज का सबसे ज्यादा नुक्सान भी जाति नामक संस्था ने ही किया है। ये जाति मानव के साथ-साथ पशुओं तक में समा गई है। एक तो पशु की खुद की जाति, दूसरा उसने मानव जाति को भी अंगीकार कर लिया है। इसी व्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए धर्मपाल सिंह चंचल जी लिखते हैं :-
ठाकुर शासकी अवज्ञा करके कुत्ता कितना कपूत हो गया
दलित के घर की रोटी खाके, ठाकुर का कुत्ता भी अछूत हो गया।
सरकारों द्वारा सफाई कर्मचारियों की सुरक्षा को नजरअंदाज किया जाता है, जिससे आए दिन सफाई कर्मचारियों की सीवर में मौत होती रहती है। कान्ता बौद्ध जी ने अपनी रचना ‘मौत के सीवर’ में ऐसी ही एक घटना का चित्रण किया है।
मौत के मुंह में समा गए
तीन कर्मचारी सीवर की सफाई करते।
नरेन्द्र वाल्मीकि जो कि पुस्तक के संपादक हैं, की कई कविताएँ इस संग्रह में सम्मिलित हैं, जिन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से व्यवस्था पर चोट करने की भरपूर कोशिश की है। नरेन्द्र समाज से प्रश्न करते हुए लिखते हैं :-
जब घर जलाए जाएँगे तुम्हारे
और किया जाएगा अपनों को दलील
तब तुम कहाँ अपना मुंह छुपाओगे
नहीं होगी कोई थाह जहाँ मर भी तुम पाओगे
चेत जाओ, सुधर जाओ, छोड़कर सब
कुरीतियों और कूटनीतियों के खोट,
आखिर कब करोगे व्यवस्था पर चोट।
‘व्यवस्था पर चोट’ साझा काव्य संग्रह दलित एवं वंचितों की पीड़ा को जानने, समझने और महसूस करने के लिए पर्याप्त पुस्तक है। इस संग्रह की प्रत्येक कविता दर्द की चीत्कार से भरी प्रतीत होती है, जो पाठक का पठन रोककर सोचने पर मजबूर करती है। वैसे तो कोई भी कार्य अपने आप में संपूर्ण नहीं होता उसमें कोई न कोई कमी रह ही जाती है, ऐसे ही पुस्तक में दलित समाज की बेरोजगारी, अशिक्षा, नशाखोरी, दलित एकता, आरक्षण जैसी समस्याओं से सम्बंधित कविताओं की कमी है। पुस्तक की इन नगण्य कमियों के कारण पुस्तक के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। पुस्तक स्वयं में दलित साहित्य में एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ के रूप में साबित होगी। संपादक नरेन्द्र वाल्मीकि का संपादक के रूप में प्रथम प्रयास है, जो कि सराहनीय है। नरेन्द्र ने देश के लगभग आठ राज्यों के रचनाकारो को इस काव्य संग्रह में शामिल किया है। जिससे हमे अलग-अलग राज्यों के रचनाकारों को एक प्लेटफार्म पर पढ़ने का मौका मिला हैं। एक समीक्षक के तौर पर मैं उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ और आशा करता हूँ कि नरेन्द्र वाल्मीकि आप साहित्य के इस कारवाँ को रुकने नहीं देंगे। प्रस्तुत पुस्तक के बारे में कहा जा सकता है कि जब कभी भी दलित साहित्य में कविताओं के संग्रह की बात की जाएगी तब ‘व्यवस्था पर चोट’ साझा काव्य संग्रह पुस्तक को अवश्य याद किया जाएगा। अंत में कहा जा सकता है कि प्रस्तुत काव्य संग्रह व्यवस्था परिवर्तन की हुंकार भरती पुस्तक है।
पुस्तक का नाम – व्यवस्था पर चोट (साझा काव्य संग्रह)
सम्पादक – नरेन्द्र वाल्मीकि
प्रकाशक – रवीना प्रकाशन, दिल्ली
प्रकाशन वर्ष – 2019
कुल पृष्ठ – 156
मूल्य – 350
समीक्षक
डॉ. दीपक मेवाती
सम्पर्क – 9718385204