व्यर्थ है कल्पना
व्यर्थ है कल्पना युग-युगों, ब्रम्हांड की,
जिसका ना आधार-विचार हो तुम।
सत्य स्वरुप को खोजती ज्ञानता में,
निरंकार को आकार हो तुम।
मृगतृष्णा की माया से जब,
आत्मा भी विचलित हो जाये,
तब भवसागर से पार लगने को;
अरण्य, पर्वत, शमशान को आये।
है एकान्तवासी वो जिनको धीर से पाया है,
है आकृष्ट तेज सा ललाट पर;
और शांत योगिन्द्र सी काया है।
जीवाज हो या भूतप्रेत है नाथ सभी के,
ये भी न जाने कैसी माया है।
रट रहे जब नाम उन्ही का,
तो ॐ में ही हमने साकार को पाया है।