व्यथित मन!
री आली! न कोई
कहूँ जिसे मन की व्यथा
अपनी पीर मैं ही जानूँ
क्या है अंतस् दशा
अहर्निश व्यग्र उद्विग्न
नहीं चैन अब पल छिन
बाँध पाई न ताल-सुरों को
कैसी मुरज की ताक-धिन?
भेद न पाई मैं भेद को
अलंघ्य बनकर रह गई
चल न सकी प्रेम-पथ पर
असीम द्रोणि बन गई
री अली! अब सँभाल तू ही
मेरे संताप का वृहद् भार
हिय-तोष अ-तोष ही जान
जब तक मिले न विरहाहार
अहो! तुम्हीं कहो सखी
यदि चाहती हो मेरे प्राण-त्राण
करूँ यत्न क्या मैं वो?
जो हो जाय प्रिय-संधान
बह-बह दृगंबु की सघन-तरलता
परिणत विरलता में हो गई
दिवस-वासर बन प्रिय-अन्वेष
निद्रा भी अनंत में खो गई
बैठ अटारी बोलता वायस
ये भी मुझे छलता रहा
मिथ्या संदेश दे पी-आवन का
घृत-मधु-पय मुझसे ठगता रहा
टूटता-सा कुछ देह में
अदेह बनने की अब बाट है
पिय-बिन हूँ री ऐसी
ज्यूँ उपल बिन नाग है
#सोनू_हंस