व्यथित मन की जुबानी…
मशगूल है हर कोई खुद में,
मतलब के साथी लगते हैं!
रिश्तों से मतलब नहीं बस,
मतलब से रिश्ता रखते है!!
कौन चाहे किसको जाने,
मतलब से सब पहचाने!
मन हुआ तो ही बात करे,
वर्ना गिनने पड़ते है ताने!!
माँ-बाप से बढ़कर कोई,
रिश्ते नहीं देते है साथ !
जिसकी मानो देंगे शय,
ना मानो तो देते है मात!!
कौन सुने खामोशी मेरी,
किससे कहूँ अपनी बात!
अपने ही नहीं जब अपने,
क्यों मांगू किसी का साथ!!
मैं गुमशुम सी देखती हूँ,
हर एक किरदारों को!
जो गढ़ते मेरा किरदार,
अपनी सोच के मारो को!!
चलूँ जो उनके इशारों पर,
स्नेह की लार टपकती है!
जी लूँ कुछ लम्हें अपने,
सबके मन को खटकती है!!
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित
17/03/2020 @ 10:39 pm
रेखा ?”कमलेश “?
होशंगाबाद मप्र