व्यथा आँसू की
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किसके लिए दृग कोरों पर आऊँ छलक?
करूँ क्यों मैं गीले अपनी ही पलक?
दु:ख के लिए? मृत्यु के लिए?
अवनति हेतु या कुंद प्रगति हेतु?
अतिशय है दुख,सुख का प्रवाह ।
संवेदना है तो है कराह।
मैं टूटकर बिखरने हेतु क्यों जनमूँ?
युद्ध में पराजित होने पर?
हर युद्ध पराजय का युद्ध है।
हर संघर्ष विजय का समर।
आंसुओं से कुछ नहीं धुलता।
आंसुओं में कुछ नहीं घुलता।
भरोसे के सिवा।
आत्मबल के अलावा।
परिस्थितियाँ प्रस्तर हैं।
पर,बदली हुई स्थितियाँ भर हैं।
हाथों से हथियार छूट जाए तो,
स्वयं से अपना सरोकार टूट जाए तो,
प्रस्तावित हो जाता है धुंध,धुंध,धुंध।
दृग कोरों पर बूंद,बूंद,बूंद।
मैं निरीहता के कोख से निकलता हूँ।
दृढ़ता के अभाव में पलता हूँ।
सहानुभूति पाने के प्रयास में गलता हूँ।
सुख पाने स्निग्ध गालों पर चलता हूँ।
सुंदर भविष्य के टूटे सपनों पर पीटता हूँ सिर।
और नहीं रह पाता हूँ मैं स्थिर।
इन आंसुओं में मेरा अंश बहुत कम है।
समूह द्वारा प्रायोजित और प्रदत्त अगम है।
ठुकाराए जाने पर रोता हूँ।
हक छिन जाने पर स्वयं में अश्रु कण बोता हूँ।
व्यवस्थाओं से लड़कर हारना मेरी नियति है।
सिर्फ पराजय ही मेरी दुर्गति है।
पोंछकर उत्साह से भरता हूँ।
विरोध में माँ,भाई ,पिता को देखकर डरता हूँ।
मैं स्त्री का गहना हूँ।
पुत्री की प्रताड़ना हूँ।
सुख के आंसुओं को लालायित।
मैं आँसू, गहरे तक श्रापित।
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25/5/22-अरुण कुमार प्रसाद