#व्यंग्य_काव्य
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■ जूतों का आत्म-कथ्य…
【प्रणय प्रभात】
हम भदरंगे हम कटे-फटे टूटे से
हम अपनी किस्मत पर रूठे-रूठे से।
हम वो जिनके हैं दाग़ बदन पर भारी,
हम वो जिनकी मरने जैसी तैयारी।
हम रहे पांव में बरसों मगर बने ना,
हम बलशाली थे लेकिन कभी तने ना।
सब सोच रहे होंगे आख़िर हम क्या हैं,
हम भूत-प्रेत हैं या फिर कोई बला हैं?
हम उधर रहे हैं जिधर हमारे स्वामी,
हम वफ़ादार हैं मालिक के अनुगामी।
हमको शिल्पी ने होकर मगन रचा था,
किस्मत में सेवा करना सिर्फ़ लिखा था।
हम गूंगे-बहरे, अंधे संग अज्ञानी,
पर क्या होती है थकन कभी ना जानी।
कुछ बंधु हमारे बेहद सुख पाते हैं,
जो सदनों तक में जमकर चल जाते हैं।
कुछ भाई हमारे चलते हैं मखमल पर,
कुछ भाई हमारे बने जगत के रहबर।
जिनके पीछे यह देश चला करता है,
जिनको छू कर इक वर्ग पला करता है।
कुछ भाई जिनकी बोल रही है तूती,
कुछ जिनकी क़ीमत आसमान को छूती।
हम सुख-सुविधा से दूर कष्ट सहते हैं,
हम अपनी गाथा आज मगर कहते हैं।
हम वो हैं जो जुड़वा भाई कहलाते,
जूते हैं हम, चरणों में पाए जाते।
स्वामी ही अपना पालक है रहबर है,
अपनी शोभा भी मालिक पर निर्भर है।
मंत्री पद में होते तो इज़्ज़त पाते,
अफ़सर चरणों में होते पूजे जाते।
वर्दी वालों के चरणों मे यदि होते,
तो चिह्न हमारे कई सिरों पर होते।
यदि होते हम सैनानी के पैरों में,
तो दूर न रहते आकर यूं ग़ैरों में।
हम बंधु-बांधवों सहित क़तार बनाए,
हम सुर में ताल, ताल में गति अपनाए।
खट-खट करते धरती का दिल दहलाते,
बस राजपथों पर आगे बढ़ते जाते।
यदि होते सड़कछाप मजनू के पद में,
तो हम भी होते सुंदरता के मद में।
जो रोज़ हमें दर्पण जैसा चमकाता,
फिर हम में अपनी शक़्ल देख इतराता।
पर अपने वश में कहीं नहीं था जाना,
तक़दीर में था कवि के चरणों में आना।
छह साल हुए कवि-चरणों में रहते हैं,
हम निर्विकार हो सारे दुःख सहते हैं।
भीषण गर्मी हो तो जलना पड़ता है,
पथ में कांटे हों पर चलना पड़ता है।
मालिक को फ़ुर्सत कहाँ नज़र जो डाले,
हम उधड़ गए हैं हमको ज़रा सिला ले।
हम भी सुडौल थे सुंदर सुघड़ सलोने,
ऐसे दिखते थे जैसे नए खिलौने।
अब कई जगह से बखिया उधड़ गई है,
कुछ सालों में ही सूरत बिगड़ गई है।
घिस गईं एड़ियां बदल गईं समतल में,
ना जाने कितने छेद बन गए तल में।
जिनमें अक़्सर कंकड़-पत्थर घुस आते,
कांटे भी जब-तक तलवों में चुभ जाते।
पर मालिक अपना कितना मतवाला है,
कवि है कवि के जैसे जीवट वाला है।
असली सूरत तक अपनी भूल गए हैं,
ये छींट नहीं यारों, पैबंद लगे हैं।
इस थके बदन पर मालिश हुई नहीं है,
छह बार भी अब तक पालिश हुई नहीं है।
आराम करें वो क्षण भी नहीं मिला है,
पर स्वामी से ना हमको कोई गिला है।
हम जैसे भी हैं खुश हैं इस हालत पर,
घायल तन पे, पैबंद लगी सूरत पर।
हम गर्वित निज किस्मत पे इतराते हैं,
कवि-चरणों का स्पर्श नित्य पाते हैं।
आनंद बहुत है घुट-घुट कर जीने में,
सुख मिलता है पैबंदों को सीने में।
ख़ुद्दारी के पैबंद बदन पे बेहतर,
जो समझौतों से मिले चमक वो बदतर।
हम नहीं चाहते सरकारी मालिश को,
हम नहीं चाहते सुविधा की पालिश को।
हम जूते हैं पर आन-बान रखते हैं,
मालिक के जैसा स्वाभिमान रखते हैं।
हम नहीं चाहते कवि चारण बन जाए,
विरदावलि गा-गाकर पालिश ले आए।
कवि का ज़मीर बिक जाए और हम दमकें,
बिक जाए लेखनी हम दर्पण सा चमके।
बिक कर चमकें ऐसा दस्तूर नहीं है,
यह झूठी चमक हमें मंज़ूर नहीं है।
बदरंग रूप है लेकिन आकर्षण है,
हम में झांको देखो हम में दर्पण है।
हम दिखलाते घायल तलवों की पीरें,
हम दिखलाते हैं कुछ सच्ची तस्वीरें।
हम सब कुछ दिखला पाने में सक्षम हैं,
मत समझो बस जूते हम एटम-बम हैं।
हम इस समाज के दर्पण की सूरत हैं,
हम भारत के सच्चे कवि की हालत हैं।
इक सच्चे कवि की क्या हालत है जानो,
हम को देखो कवि-पीड़ा को पहचानो।
इस आत्मकथ्य के सूत्रधार हम जूते,
सिस्टम के मुख पर इक प्रहार हम जूते।
जो मखमल पर चलते हैं मिट जाएंगे,
कुछ दिन सुख पाकर सड़कों पर आएंगे।
मालिक उनको घर से बाहर फेंकेगा,
चमकेंगे लेकिन कोई नहीं देखेगा।
पर हम दुर्लभता की पहचान बनेंगे,
हम संग्रहालयों तक की शान बनेंगे।
कल शाही जूतों को जीना अखरेगा,
अपने चिह्नों पर सारा मुल्क़ चलेगा।
■सम्पादक■
न्यूज़ & व्यूज़
श्योपुर (मध्यप्रदेश)