व्यंग्य मनमोहन छन्द
व्यंग्य
शादी समझो, एक जहर
बरसे इसमे, सदा कहर
घर में होगी, नही कदर
दौड़ा दौड़ी, इधर उधर
बाहर से जब, आते घर
होता है फिर, विकट समर
रहता हूँ घर, में डर डर
होती ऐसे, गुजर बसर
कभी कहे वो, दुखे कमर
चाय बना लो, तुम प्रियवर
कभी धुलाती, है बरतन
बर्बादी का, यही जतन
बेचारा पति, नेक नरम
निभा रहा है, एक धरम
इसकी पीड़ा, बहुत दुखद
करो ब्याह न, रहो सुखद
अदम्य