(व्यंग्य) “भैया कैसे हो”?
स्वस्थ गात, संपति विराट हो
और जुबां पे दम-खम हो,
वस्त्राभूषण देह अलंकृत,
कुछ विवेक चाहे कम हो।
चटक मटक हो चाल-चलन में
और जेब में पैसे हो,
फिर अनजाने भी कहते हैं,
हां जी भैया कैसे हो ?
विपदा सिर पर जब आ जाये
पोषण जैसे-तैसे हो,
पड़े रहो तुम वहीं अकिंचन,
जहां कहीं भी जैसे हो ।
अपनों को क्या लेना-देना,
ऐसे हो या वैसे हो ।
कोई ना देखे, ना पूछे,
हां जी भैया कैसे हो ?
इस हालत में गये वहां यदि,
अपना जिन्हें बताये हो ।
घूरेंगे ऐसे मानो ज्यों,
जान मांगने आये हो ।
‘नवल’ बीन को कौन सुनें जब,
बंधे खूंट पर भैंसे हो,
फुर्सत कहां जो तुझसे पूछे,
हां जी भैया कैसे हो ?
आज स्वयंभू मठाधीश हैं,
गाल बजाना जो जाने,
कृपा-पात्र तो बहुत बनाये
राह दिखाना क्या जाने ?
जो महलों को नमन करे नित,
परहितकारी ऐसे हो,
दीन-हीन से कौन कहेगा,
हां जी भैया कैसे हो ?
– नवीन जोशी ‘नवल’