व्यंगात्मक कविता आइये कद्रदान
आइये कद्रदान लेकर आया सियासत की दुकान
झोपड़ियां दूंगा तुमको छीन कर के तुम्हारे मकान
तुम्हारे लहू को जलाकर अपना चरागाँ जलाना है
तुमको बनाने आया हूँ सुखी शाख वाला गुलिस्ताँ
खूब तराशा था गर्दिशों में तुमने भी जिस हीरे को
उसका नहीं रहेगा कभी कही कोई पर भी निशान
तुम्हारी गर्दन पर शिकंजा कसने आया हूँ मैं यारों
मार डालूँगा तुमको मुकर जायेंगे गवाही के ब्यान
तुमको तो सज़ाऐ मौत लाजिमी है इस लोकतंत्र में
मेरे व्यंग के तीखे तीर चलाती मेरी जहरीली जुबाँ
जोश में हो तो आरिया चला देना उस शाख पर
जिस पर बैठे हो तुम सब मेरे देश के मुर्ख जवान
देखो इस कुर्सी का लालच मुझकों भी रहता यारों
मैं भी बिकाऊं हूँ मुझको तो भी बनना नेता महान
धन दौलत मोती रत्न सब तुम्हारे लूट ले जाऊँगा
इस चुनाव मे वोट देना गूंगी अदालत को श्रीमान
अशोक की बातें मत मानो यारो ये कटखना बड़ा
बचपना ऐसे बीता इसका जैसे कटखने हो श्वान
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से