वो सुबह
उस रात आखिर थक हार के
डाल दिए सब हथियार
बुझा दिए उम्मीद के सब दिए
और दिया खुद को मार
मालूम न था मौत कैसी होती है
उस से कभी मिली जो नहीं
बस यही सोचा शायद खिल जाए वो बगिया
जिंदा रहते जो खिली ही नहीं
यही सोच कर दिया जीवन का अंत
शायद उस पार है सुंदर मधुरिम बसंत
किंतु यह क्या?? मौत तो मुझे छू भी न सकी
देह से अलग हो कर भी मैं तो रही वही की वही
जी चाहा एक प्याली चाय बना के पिउं
मगर हाथ खाली हवा में घूम गए
जी चाहा गले लगा लूं उस रोते हुए प्यारे को
मगर देह के आयाम बस हवा को चूम गए
घूम रही हूं इधर उधर बेमकसद बेतरतीब
मौत ने राहत न दी छीन ली मुझ से तदबीर
मेरे प्यारे सुनो मुझे , अगर सुन सको
जीवन है अनमोल कभी नष्ट न करना इसको
हालात ऐसे वैसे जैसे भी हों
बस जिंदा रहना, क्योंकि जिंदा रह कर ही बदल सकोगे हालात को…