वो सियासत के हो गए
अब मेरे आंसू भी तो मुझसे बेवफा हो गए हैं
जिस पे मैं फिदा था उसी पर फिदा हो गए हैं
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मेरी बगावत के सुर अचानक से बदल गए हैं
जो साहित्य के रहे वो सियासत के हो गए हैं
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जरुरी जिन्हें पास रहना अब जुदा हो गए हैं
न मेरे तुम्हारे रहे वो सभी के ख़ुदा हो गए हैं
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वो अन्दर से कितनी बार तार-तार हो गए हैं
जिनको गद्दार कहा अब दिले यार हो गए हैं
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मेरी आंखें बेपर्दा हुयी तो बेनकाब हो गए हैं
जरा नज़रे क्या हटी वो आफताब हो गए हैं
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विचार अनाचार के सहज शिकार हो गए हैं
वो दल बदल- बदल कर अख़बार हो गए हैं
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पिछली बार न बोलकर दरकिनार हो गए हैं
कुछ अबकी बार बोलकर सरकार हो गए हैं
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रहे इंतजार में खड़े जो वो इंतजार हो गए हैं
वो लगते गए जहां से प्रथम कतार हो गए हैं
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जो आए यहां सभी तो विष-बीज बो गए हैं
सब पल्लवित होकर बृक्ष-विशाल हो गए हैं
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साहस के जो साथ थे वो कब के मर गए हैं
जो बचे खुचे रहे सत्ता-शासन से डर गए हैं
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– रामचन्द्र दीक्षित’अशोक’