वो सहरा में भी हमें सायबान देता है
ग़ज़ल
वो सहरा में भी हमें सायबान देता है
कि सर पे अब्र की चादर जो तान देता है
हमारी ओर कहाँ कोई ध्यान देता है
तुम्हारी बात पे हर एक कान देता है
क़सम जो खाता है तुझको ज़बान देता है
यक़ीं नहीं वो तुझे बस गुमान देता है
था एक दौर कि मिलती थी ताज़गी जिससे
ये प्यार-व्यार भी अब तो थकान देता है
बना तो सकता है बेशक क़फ़स वो सोने का
परिंदों के लिए कब आसमान देता है
ये किसकी आह-ओ-फ़ुग़ाँ अर्श तक चली आई
सदा ज़रूर कोई बे-ज़बान देता है
‘अनीस’ भूल ही जाते हैं चार दिन में सभी
यहाँ किसी के लिए कौन जान देता है
– अनीस शाह ‘अनीस’
सहरा=रेगिस्तान। सायबान=छायादार आश्रय। अब्र=बादल। क़फ़स =पिंजरा। आह-ओ-फ़ुग़ा=चीख पुकार। सदा=आवाज़।