वो वक्त भी क्या वक्त था
बचपन की गलियों में,सदा मन यूँ ही खोया रहता है
सपना जो देखा था कभी,वो मन में संजोये रहता है
गिल्ली-डंडे,छूप्पम-छूपाई,कंचो पर,
वक्त का पहरा सख्त था
वो वक्त भी क्या वक्त था
जहाँ एक ऊंगली से कट्टी,दोस्ती दो ऊंगली पे होती थी
खुल़ी आँखे, लाखो सपने,हर पल,दिन में हीसंजोती थी
वहाँ तो,हर मन परस्त था
वो वक्त भी क्या वक्त था
घर के लोगों का आपस में, बेतहाशा लगाव था
रिश्ते चाहे कितने दूर हो, न कोई मनमुटाव था
रिश्ता निभाने का चाव भी दरख़्त था
वो वक्त भी क्या वक्त था
स्कूलों में खौफ नहीं था, बस “पास” के लिए पढ़ते थे
दोस्त किसी से बात करे, दोस्ती के लिए ही लड़ते थे
वो दौर,सबसे हसीं है, पता किसे कमबख़्त था
वो वक्त भी क्या वक्त था
रेखा कापसे
होशंगाबाद मप्र