वो मुस्कराता ही नहीं …
उसको तो जमीं मुझे आसमान भाता नहीं
क्यों इन दूरियों को कोई समझ पाता नहीं
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मेरी छत पे अब कभी भी चांद आता नहीं
वो भी भयभीत हैं कहीं आता-जाता नहीं
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मुझ को पूछना उसको बताना आता नहीं
ये मजबूरियां एक दूसरे से कह पाता नहीं
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शिकायत यही कि मैं उसको बुलाता नहीं
पर पास आने को कहूं तब वो आता नहीं
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मेरे मुस्कानों पे भी वो तो मुस्कराता नहीं
वो मुस्कराता ही नहीं या उसे आता नहीं
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वो जब भी रुठ जाता मैं उसे मनाता नहीं
क्योंकि मुझ को रुठ जाना तो आता नहीं
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वो कह रहा था उसको सताना आता नहीं
पता है अजनबी कभी लौटकर आता नहीं
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रिश्तें हैं कहां मैं ढ़ूढ़ता उसे ढ़ूढ़ पाता नहीं
फिर कोई क्यों कहें मैं रिश्ता निभाता नहीं
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मैं अपने घर का रास्ता उसको बताता नहीं
है भूलकर वो उधर से कभी भी आता नहीं
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वो मिला कई बार मैं तो पहचान पाता नहीं
हर बार उसकी तरह रंगत बदल पाता नहीं
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– रामचन्द्र दीक्षित ‘अशोक’