वो मस्त बहारें
रुत बासंती बीत चली , बदला वन का रूप ।
शीतल हवा उष्ण हुई , लगे चटक सी धूप ।।
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पतझर की बेदर्द रुत , छीनी मस्त बहार ।
शाख , शाख सूनी भई , कौन करे श्रृंगार ।।
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सन – सन करती हवा बहे , खूब मचाए शोर ।
बिन पत्तों के पेड़ पर , चले न उसका जोर ।।
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हरियाली सब खा गई , पतझर की यह रीत ।
बिन पत्तों के पवन भी , कैसे गाए गीत ।।
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पत्र विहीन तरुवर भए , पीर सही न जाए ।
दूर कहीं सेमल खड़ा , शूल बीच मुस्काए ।।
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झर – झर पत्र जमीन बिछे , बदली वन तस्वीर ।
पगडंडी गुमनाम सी , खोजे पथिक अधीर ।।
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पतझर में न छांव कहीं , पंछी भए उदास ।
मृग वनचर विकल भए , ढूंढे मिले न घास ।।
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सुर्ख सुलगती कोपलें , पतझर का श्रृंगार ।
किंशुक कुसुम सनेह से , मुस्काता हर बार ।।
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पतझर की जादूगरी , देखे सकल जहान ।
कहीं पात आंसू झरै , कहीं किंशुक मुस्कान ।।
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आम्र कुंज सजने लगे , विरहा हिय बेजार ।
कोकिल कुहु कुहु कूकती , अमराई गुलजार ।।
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अशोक सोनी
भिलाई ।