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21 Jan 2022 · 2 min read

वो भी क्या दिन थे!

वो भी क्या दिन थे,
जब पुरे परिवार को,
एक ही दोपहिया वाहन में,
ढोते थे,
मोटर साइकिल हुआ करती थी,
जिसकी टंकी पर छोटी बेटी बैठा करती,
बेटे को पत्नी गोद में लेकर रखती,
बड़ी बेटी हम दोनों के मध्य में बैठा करती,
पांच सदस्यों का है परिवार हमारा,
दो या तीन बच्चे, सरकार का भी था नारा!

कच्ची पगडंडियों पर होकर,
आया जाया करते हम अक्सर,
क्यों कि यह बच्चे स्कूल में पढ़ा करते,
सप्ताह में एक दिन शनिवार को घर आया करते,
उन्हें लेने मैं जाया करता था,
और सोमवार को छोड़कर आया करता था,
श्रीमती जी बच्चों के संग शहर में रहा करती,
वही उनकी देखभाल किया करती,
मैं अपने काम के सिलसिले में लौट आता,
गांव में रह कर जीविका पार्जन चलाता!

यह सिलसिला जारी रहा कई वर्षों तक,
बच्चे बड़े हो गए जब तक,
अब वह मोटरसाइकिल पर नहीं समा पा रहे थे,
बैठने में कसमसा रहे थे,
तब मैंने चेतक खरीद लिया,
पर बैठने का क्रम वही जारी रहा,
छोटी पायदान पर खड़ी होती,
बड़ी मध्य में बैठी होती,
पुत्र अभी भी अपनी मां की गोद में होता,
शहर में रहने को एक कमरा किराए का होता,
उसी में सब आते जाते रहते,
इष्ट मित्र सभी उसी में समाए रहते!

कमाई थोड़ी ही थी,
तो गुजारा भी थोड़े में ही करना पड़ता,
पढ़ाई-लिखाई के खर्चे बढ़ रहे थे,
हम अपनी जरुरतों में कटौती कर रहे थे,
जैसे कैसे उन्हें पढ़ा लिखाकर योग्य बनाया,
अपनी सामर्थ्य के अनुसार,
उनका पाणिग्रहण संस्कार कराया,
अब बच्चे- बच्चे नहीं,
बड़े हो गए हैं,
अपनी अपनी गृहस्थी में लगे हुए हैं
अपने परिवारों के भरण पोषण में,
हम तन्हा हो गये अपने घोंसले में!

हम जहां से शुरु हुए थे,
वहीं पर अटके हुए हैं,
घर लगता है अब सूना सूना,
तन्हा तन्हा लगता है घर का हर कोना,
स्कूटर से स्कूटी पर आ गये,
अब उसे भी चलाते हुए घबरा रहे,
कितना कुछ बदल गया,
इन तीस चालीस सालों में,
झूरिंया उभर आई गालों में,
आंखों की चमक की जगह,
अब धूंधले पन ने ले ली,
कमर भी अकड़ने लगी,
हाथ पैरों में भी वह शक्ति नहीं बाकी,
बस निभाई जा रही है दुनियादारी!

सोचता हूं कि वह भी क्या दिन थे,
जब फराटे से वाहन चलाया करते थे,
जब काम काज से थक कर भी थका नहीं करते थे,
एक ऊर्जा अपने अंदर महसूस किया करते थे,
कुछ कर गुजरने की चाह होती थी,
लेकिन अब जब निभ गई है सांसारिक जिम्मेदारी,
शरीर में थकान हो गई है भारी,
रह रहे होते हैं जब अकेले,
नहीं होते भागम भाग के झमेले,
ठहराव आ गया है जीवन की छांव में,
कभी कभी चले जाते हैं गांव में,
अधिक तर तो महानगर में ही रहते हैं,
जहां बन गया है एक मकान,
पर लगता नहीं पा लिया हमने मुकाम,
वो भी क्या दिन थे,जब अभाव में तो होते थे,
पर इस तरह के किसी तनाव में नहीं रहते थे!

Language: Hindi
457 Views
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