वो भी क्या दिन थे हम जब गाँव में रहते थे
वो भी क्या दिन थे जब हम गाँव में रहते थे
ना छोटा ना कोई बडा,सब दोस्त रहते थे,
ना ऊच ना कोई नीच ना जाति ना पाति,
राम,सीता, लक्ष्मण कोई भरत बना करते थे,
वो भी क्या दिन थे जब हम गाँव में रहते थे
मम्मी-पापा,चाचा- चाची,दादा- दादी संग
एक घर,एक आंगन,एक चूल्हे का खाते थे,
कहाँ गया वो प्यार जब सब साथ साथ रहते थे,
वो भी क्या दिन थे जब हम गाँव में रहते थे
ना भेद ना कोई भाव था साधनों के आभाव में
अपने खेतों में काम करने वालों को ही तब
हम काका- काकी कहकर बुलाया करते थे,
वो भी क्या दिन थे जब हम गाँव में रहते थे,
बूढे बुजुर्गों का सम्मान था घर घर ये भगवान था
ह्वदय में गहराई थी नहीं किसी का आपमान था
कर बडे-छोटों का आदर मधुर भाव से रहते थे,
वो भी क्या दिन थे जब हम गाँव में रहते थे
पिज़्ज़ा, बर्गर पास्ता और रेस्टोरेंट नहीं थे
माटी का चूल्हा, सौंधी सौंधी ,मक्के की रोटी
देशी नेनू और नून लगा मन से खायॎ करते थे,
वो भी क्या दिन थे जब हम गाँव में रहते थे
एसी-कूलर,लाइट नहीं थी और नहीं थे पंखे
शाम होते ही घर की छत भिगोया करते थे
हम सब मिल कर बेटेंशन चैन से सोया करते थे
अजीत~