वो प्यासा इक पनघट देखा..!!
घूम रहे बिन चुन्नट देखा,
जिन चहरों पर घूंघट देखा।
गुजरा प्यास बुझाते जीवन,
वो प्यासा इक पनघट देखा।
कुछ लंगड़ों को दिन ढलते ही,
दौड़ लगाते सरपट देखा।
ऊंचे ऊंचे महलों में भी,
रोज नया इक झंझट देखा।
जो कहते थे इश्क़ ज़हर है,
उनको लेते करवट देखा।
पास न बैठा दो पल कोई,
मौत पे’ उसकी जमघट देखा।
सागर की ऊँची लहरों ने,
नदिया का सूखा तट देखा।
रोटी खातिर लड़ते थे जो,
बीच उन्हीं के मर्कट देखा।
गूँगों की बस्ती में साहब,
हमने पुजता मुँहफट देखा।
मिलते ही मंत्री की कुर्सी,
रंग बदलते झटपट देखा।
मुश्किल इतनी थीं राहों में,
पग पग पर ज्यों मरघट देखा।
गिल्ली-डण्डा, पोशम-पा में,
गुजरा बचपन नटखट देखा।
जो थे आलमगीर “परिंदे,”
उनको होते चौपट देखा।