*वो पगली*
नभ सी उतरती हुई कोई परी !
रक्षा करना मेरी मेरे नरहरि!!
ये पगली मुझे जानती ही नहीं है!
मेरी दिव्यता पहचानती नहीं है!!
फिर से कूड़े-कर्कट को ले आती है!
हरी भरी कोई बेल कु़ंभलाती है!!
अक्ल जगाओ इस पगली की विधाता!
मेरा कोई समझाना समझ नहीं आता!!
मदद करता हूँ पर करने नहीं देती है!
अभी तो इसकी सोच बड़ी अगेती है!!
उस कीचड़ में रहना चाहती लोटपोट!
जिसमें हरे कदम भरे खोट ही खोट!!
खिलने नहीं दे रही कीचड़ में कमल!
कैसे लहलहायेगी भरपूर फसल!!
परमात्मा इसको ऐसा जादू कर दो!
इसकी खोपडी को सत्व से भर दो!!
परमात्मा यह तो मुझसे भी नाराज है!
कल नहीं थी ऐसी जैसी यह आज है!!
सोओ,जागो साथ में शिव तुम्हारा!
शुद्धता की आभा लिये हुये बस प्यारा!!
ओ देवी,ओ शक्ति,ओ दुर्गा, ओ पार्वती !
ओ काली कराली मकाली ओ सती!!
यह कहती भी,मना करती जाती है!
गुस्से में कभी इतराती सकुचाती है!!
सावन-भादों मौसम शरमाता है!
रुप बदलने में सार बतलाता है!!
अपनी शक्ति को नहीं मानती हो!
दिव्यता सराबोर नहीं जानती हो!!
तोला,कभी माशा,कभी और भारी!
ओ देवी जगजननी जीव आभारी!!
कितनी अभिव्यक्ति अपनी गरिमा!
सुखसागर गोता लगवाने की महिमा!!
फिर भी बार-बार कीचड की चर्चा!
कब देना शुरू करोगी मुझे निज पर्चा!!
जागो सुनो जागो सुनो जागो जागो!
अपने स्वरूप को भूला मत भागो!!
पूरा महाकाव्य ही बनवा मानोगी!
तभी उस परिस्थिति में ‘स्व’ जानोगी!!
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आचार्य शीलक राम
वैदिक योगशाला
कुरुक्षेत्र