वो दिन
जब तिनकों की छत और मिट्टी की दीवारें थी,
गोबर से लिपा आँगन मेहमानों की कतारें थी।
नीम की ठंडी छाँव थी नदिया में तैरती नाव थी,
गोरी के सिर पर गागर छनकती पायल पाँव थी।
मेघ मल्हार गाती हुई सावन में झूलती उमंगें थी,
बरखा की भीगी फुहार में मन में उठती तरंगें थी।
आंगन में चाँद तारों से होती रोज़ मुलाकात थी,
उन दिनों की तो सच में कुछ और ही बात थी।
हर आदमी के दिल में दिखता जो वो सुकून था,
मन लगता था ऐसा जैसे खिला कोई प्रसून था।