वो ख़्वाहिशें जो सदियों तक, ज़हन में पलती हैं, अब शब्द बनकर, बस पन्नों पर बिखरा करती हैं।
वो ख़्वाहिशें जो सदियों तक, ज़हन में पलती हैं,
अब शब्द बनकर, बस पन्नों पर बिखरा करती हैं।
वो मुस्कुराहटें जो, मासूम सी आँखों में कभी बसती हैं,
अब बूँदें बनकर, बारिशों संग हँसा करती हैं।
वो पतवारें जो कश्तियों के सफर को पूरा करती हैं,
जल कर जो हुई भस्म, अब किनारों से ख़फ़ा रहती हैं।
वो बहारें जो साँसों को, भीनी खुशबुओं से भरती हैं,
अब बस बदलते मौसम का सबब बनकर, शहर से गुजरती हैं।
वो उड़ानें जो बादलों से, शर्तों की बातें किया करती हैं,
गिरी यूँ कि, जमीं के रास्तों पर भी, चलने से अब ये डरती हैं।
वो धड़कनें जो रेत के महलों को भी, कभी अपना कहा करती हैं,
अब अपनी दहलीज़ पर रूककर, अपनी हीं पहचान को तरसती हैं।
वो आशाएं जो कभी, टूटे तारों से भी दुआएं किया करती हैं,
अब धूल से सनी चिट्ठियां बनकर, एक कोने में जिया करती हैं।