“वो कैनवस ही तो ढूँढ रही हूँ”
वो कैनवस ही तो ढूँढ रही हूँ,
जिस पर उकेर सकूँ तुम्हें।
कुछ उनींदी आँखें,
जो सपनों में डूबी हों,
कुछ बेपरवाह सी बातें ,
जो मधु में सनी हों,
कुछ बीती हुयी यादेंं ,
जो सुरभि से भरी हों,
कुछ अनकहे से वादे,
जो विश्वास से जुड़ी हों,
वो कैनवस ही तो ढूँढ रही हूँ,
जिस पर उकेर सकूँ तुम्हें ।
नेह के पंखों से,
विश्वास की तूलिका से,
प्रीत के ऋंगार से,
नवरंग के गुलाल से,
भोर की किरन से,
चाँद की चाँदनी से,
बरखा बहार से ,
इन्द्रधनुष के रंग से,
वो कैनवस ही तो ढूँढ रही हूँ,
जिस पर उकेर सकूँ तुम्हें ।
…निधि…