वो किधर से गए?
वो इधर से आए व उधर से गए
ढ़ूढ़ते रह गए वो किधर से गए ?
आए बनाने और बिगड़ कर गए
साथ अपने दो-चार लेकर गए
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उनके जाते हमारे घर जल गए
हमारे मुसीबत के पल बढ़ गए
कुछ और ऊंचाइयों पर चढ़ गए
कुछ नीचे गिरे और गिरते गए
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शहर हमारे उनके गढ़ हो गए
इरादें उनके और सुदृढ़ हो गए
बोल बिगड़े और बिगड़ते गए
बोलते-बोलते वो बेसुरे हो गए
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वो तो खाली आए भरकर गए
हाथ अपने हम मलते रह गए
न जाने क्या -क्या वो कर गए
जब वो गए हम देखते रह गए
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गए तो बीज गहरे में बोकर गए
पुनः आकर पल्लवित कर गए
लहलहाने पर उल्लसित हो गए
काटी फ़सल प्रफुल्लित हो गए
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जो कहना न था वो कहकर गए
हर बेतुकी बात को बुनकर गए
जज़्बात छुआ व अस्मिता छू गए
किस रिश्ते से वो फरिश्ते हो गए
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जाते-जाते वो तो मुखर हो गए
बुद्धिमत्ता में आगे प्रखर हो गए
हम पीछे चले वो डगर हो गए
हम मुसाफ़िर वो सफ़र हो गए
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हम कहीं के न वो शहर हो गए
साजिश में हम दर-बदर हो गए
वो फैलते रहे और कहर हो गए
हम सिकुड़ते रहे बदतर हो गए
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जुर्म इतना वो जमानत हो गए
सज़ा पाते गए बगावत हो गए
नाम इतना कि सोहरत हो गए
हर ज़ुबां पे वो कहावत हो गए
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हम डरे थे व डरे के डरे रह गए
वो निडर थे खड़े के खड़े रह गए
हम जीवित हो कर भी मर गए
वो मरे भी नहीं व अमर हो गए
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–राममचन्द्र दीक्षित ‘अशोक’