वो एक तुम
वो एक तुम ही बने,
जीने की वजह मेरी,
तुम्हें न भाये यदि
सांसें बेज़ार लगती है ।
तपाया खुद को सदा
जिनकी एक खुशी के लिए
अफसोस उनकी हीं
शामें उदास रहती हैं ।
जाने तकदीर मेरी
चाहती है क्या मुझसे?
मेरी छोटी सी चाहत भी
उसे नाग़वार लगती है ।
पकड़ रखे जो थोड़े
ख्बाब मैंने मुट्ठी में मेरी
कैसे वो छीने बस
इतनी फ़िराक रखती है ।
मैं मना लूंगी तुझे
सौ दफा जो तू रूठे
कभी पर तू भी मनाये
ये आस रहती है ।
वो जिनकी शर्तो में
ढलते रहे सदा ही हम
उन्हें ही शख्सियत
मेरी बेकार लगती है ।