वैश्यावृत्ति : अपमान या एहसान
ये चेहरे की उदासी और चुभन बता रही है
किस तरह वो अपनी मजबूरियां छुपा रही है
जो करना पड़ रहा है अपनी आबरू को नीलाम
और हो गई हर जगह वो अबला बदनाम
थे जो उसके करीबी और भरोसे के मात्र
समझ न पाई उनको थे असल वही कुपात्र
बेबस और लाचार को गया जब गटर मे धकेला
चंद पैसों के लिए उसे छोड़ा कोठे पर अकेला
घुट घुट कर कुछ दिन उसने बहुत किया विरोध
पर जब हार का अपनी उसे होने लगा बोध
तब मान अपनी नियति उसने कर लिया स्वीकार
ढोने लगी जिस्म पर गंदे समाज का भार
बेचकर अपने सम्मान को वो कपड़े उतारने लगी
खुद से नजरे बचाकर अपने सपने मारने लगी
मिटाती रहीं वर्षों तक जिस संसार की वो भूख
सम्वेदना सिकुड़ गई और उनके अश्क गए सूख
समझा नहीं किसी ने उसके मानवी अधिकार को
उल्टा दोषी माना, कहा क्यों चुना इस व्यापार को
किसी ने उसे बचाने का तो कभी नहीं सोचा
बल्कि मौका जिसे मिला उसने जी भर उसे नोचा
और इतनी ही नफरत है अगर तो उठाओ एक वीणा
समझो उनके मर्म को और दूर करो पीड़ा
सिर्फ बातों से नहीं हो सकता उनका उद्धार
करना होगा उनके हक मे सभ्य एक प्रचार
कि मिले या तो कानूनी मान्यता उनके बलिदान को
या बचाया जाए आबरू और गिरते हुए सम्मान को
~ Poetry By Satendra