वैभव
में फिर धरती का भाग्य जगाने को कलम धारूँगा।
में उस नभ विमान पर बैठे दिनकर को नमन करूँगा।।
में हूँ वैभव धरती का आदि पुरूष मैं ही मनु से आता हूँ।
मैं ही कलम की नोक से अंगार सदा बरसाता हूँ।।
जो बढ़ रहा है मेरे वैभव की और भला इसे कौन रोकेगा।
होगा कौनसा नर ऐसा जो स्वयं को पावक तृषा में झोकेगा।।
बढ़ रहे पाव कोटि सब अम्बर की और पद छाप किये।
क्या कभी वीर ने किसी वीर के मरने पर संताप किये।।
जाने वाला तो चला गया अब तुम तो अपना काम करो।
रण में बचें अंतिम वीर का धर शीश मुकुट सम्मान करो।।
वीर नहीं हाथों की रेखा को किस्मत समझते है।
केवल अनल अंगार के सम्मान सदा धधकते है।।
जब माँ का वैभव करे पुकार तो बढ़कर प्राण चढ़ाऊंगा।
काटो भरे कानन के ऊपर अपने पदचिह्न बनाऊँगा।।
मौलिक एवं स्वरचित
शंकर आँजणा नवापुरा धवेचा
बागोड़ा जालोर-343032
मो.8239360667