वैदेही से राम मिले
दोनों तरफ वेदना गहरी
पर दोनों के होंठ सिले ।
लंका विजय प्राप्त कर जिस क्षण
वैदेही से राम मिले ।।
रूप-रूप से मुखर हुआ जब
बही दृगों से जल-धारा ।
अंतर् के संवाद मौन थे
मौन प्रेम का गलियारा।।
शिलाखंड-सी अचल भूमिजा
धुआँ-धुआँ पलकें पुतली ।
मन-उपवन का पवन मौन था
मन अंबर कौंधी बिजली ।।
साँसें रुकी-रुकी कंठों में
आज नहीं अधरोष्ठ खिले ।
लंका विजय प्राप्त कर जिस क्षण
वैदेही से राम मिले ।।
पुष्प वाटिका प्रथम मिलन था
पुष्प-पुष्प थे तब प्रहरी ।
अब अशोक वाटिका त्यागकर
प्रीति बढ़ी उर में गहरी ।।
गर्वित हृदय जानकी का था
जीत समर श्रीराम लिए ।
ठिठक गए श्री चरण अकारण
गौरव रेखा खींच दिए ।।
विचलित अंतःकरण राम का
कंपन करते ओष्ठ हिले ।
लंका विजय प्राप्त कर जिस क्षण
वैदेही से राम मिले ।।
सिया घिरी अपराध बोध से
टेर लगाती पावक को
स्वयं समर्पित किया अग्नि को
धैर्य-धर्म मन-साधक को।।
पोर-पोर से राम जले खुद
किए भूमिजा संरक्षित ।
अभिलाषा की ज्योति प्रज्वलित
पावन भाव जगे अगणित ।।
राम हुए नत प्रीति जानकी
अंतर्मन उल्लास खिले ।
लंका विजय प्राप्त कर जिस क्षण
वैदेही से राम मिले ।।
डा. सुनीता सिंह ‘सुधा’
स्वरचित ©
वाराणसी