वैचारिक आंदोलन का निर्माण करती कविताएँ।
युवा कवियों में बहुख्यातिप्राप्त कवि नरेंद्र वाल्मीकि द्वारा संपादित कविता-संग्रह “कब तक मारे जाओगे” वर्ष 2020 के जुलाई माह में सिद्धार्थ बुक्स, दिल्ली द्वारा प्रकाशित होकर हमारे हाथों में हैं। पुस्तक के प्रथम फ्लैप पर डॉ. जय प्रकाश कर्दम और द्वितीय पर डॉ. कर्मानंद आर्य की महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ हैं। यह पुस्तक 240 पृष्ठों में 62 कवियों की 129 रचनाओं के साथ फैली हुई है। इसके प्रथम कवि स्मृति शेष ओमप्रकाश वाल्मीकि जी वरिष्ठतम कवि हैं तथा सूरज कुमार बौद्ध सबसे युवा कवि हैं जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र और छात्र नेता हैं। एक में आक्रोश है तो दूसरे ने ललकारा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने क्रान्ति के लिए पत्थरों की तरफ इशारा किया है तो युवा पीढ़ी ने कलम पकड़ने को ही क्रान्ति समझा है। इन कविताओं में तीन पीढ़ियों के द्वंद्व उपस्थित है।
इस संग्रह की विशेषता के बारे में संपादक नरेंद्र वाल्मीकि ने अपने संपादकीय में लिखा है, “यह संग्रह उस समाज की समस्याओं पर केंद्रित है जो आज भी कई स्थानों पर हाथ से मानव मल उठाने को मजबूर हैं। आज भी सफाई से जुड़े पेशे में संलग्न हैं। यूँ तो हम विश्व शक्ति बनने का दावा कर रहे हैं लेकिन वहीं एक जाति विशेष के लोग आज भी देश में घोर अमानवीय कार्य को बिना किसी सुरक्षा के करने को मजबूर हैं।” (संदर्भ: कब तक मेरे जाओगे, पेज 5)
मैंने अपने बहुत से आलेखों में लिखा है और लिखते रहते हैं कि हमारे समाज में समस्याएँ बहुत हैं और लोग उन समस्याओं को अपने-अपने तरह से परिभाषित भी करते रहते हैं लेकिन प्रश्न है ये समस्याएँ खत्म कैसे हों। इसी संदर्भ की कविता है “बस्स! बहुत हो चुका” जिसमें ओमप्रकाश वाल्मीकि का आक्रोश परिलक्षित होता है। आक्रोश बताता है कि बात समझ में आ गई है। वाल्मीकि जातियों की स्थिति के लिए जिम्मेदार भारतीय जातिप्रथा है। भारतीय जातिप्रथा के लिए भारत की सर्वोच्च जाति ब्राह्मण है। ब्राह्मण परजीविता पर आधारित जाति है। इसी जाति ने अपने जैसे मनुष्य को एक विशेष जाति में तब्दील कर एक विशेष गंदा कार्य करने पर सामाजिक रूप से मजबूर कर रखा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने वाल्मीकि जातियों के हाथ में झाड़ू, मल से भरे बाल्टी-कनस्तर और सिर पर मल से भरी टोकरी का दृश्य उपस्थित करते हुए अपने आक्रोश को व्यक्त किया है। आक्रोश भी ऐसा जो आग सा दहक रहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि इतने संतप्त हो उठते है कि उन्हें डॉ. आम्बेडकर के अहिंसा का दर्शन भी लिखने से नहीं रोक पाया:
बस्स!
बहुत हो चुका चुप रहना
निरर्थक पड़े पत्थर
अब काम आएंगे
संतप्त जनों के। (कब तक मारे जाओगे, पेज 14)
परिवर्तन की इसी माँग को रेखांकित करती हुई डॉ. सुशीला टाकभौंरे की कविता “मेरा अस्तित्व” व्यक्ति के अस्तित्व को उसके समाज के अस्तित्व के साथ जोड़ती है। व्यक्ति खूब रुपया-पैसा कमा ले, ऊँची हबेली बनवा ले, गाड़ी-मोटर से चलने लगे, खूब सूटेड-बूटेड हो लेकिन जाति है जो पीछा नहीं छोड़ती है। तिमंजिला पर खड़ा वाल्मीकि सड़क पर झाड़ू लगाने वाली/वाले वाल्मीकि का सामाजिक मूल्य समरूप है। इस कविता में आक्रोश तो नहीं है लेकिन संताप और लज्जा है। यह कविता भी तत्काल परिवर्तन की गोहार लगाती है। इस कविता का एक मार्मिक दृश्य है:
मैं निश्चिंत नहीं रह सकती
अपने अस्तित्व की चिंता में डूबी
पुकारती हूँ मदद के लिए
कोई तो आओ
मेरी बिरादरी को समझाओ। (कब तक मारे जाओगे, पेज 29)
समस्या का समाधान कैसे हो? लगभग सभी कवियों की राय है कि हम मिलजुल कर समस्या के विरुद्ध आंदोलनरत रहें। धर्मपाल सिंह चंचल की कविता “कब तक मारे जाओगे” में वाल्मीकियों द्वारा निष्पादित कार्यों को त्यागने का आह्वान किया है। कवि के कविता का शीर्षक ही प्रश्न है कि कब तक मारे जाओगे अर्थात कवि कहना चाहता है कि वाल्मीकि जातियाँ आएदिन सुनियोजित तरीके से गटर में भेज कर मरवा दी जाती हैं। सुनने में यह आरोप गलत लगता है लेकिन यह आरोप इसलिए सत्य है क्योंकि सरकार और उसके संचालक सवर्ण जातियाँ यह जानती हैं कि किसी भी गंदे नाले, सीवर, टैंक इत्यादि जगहों में जहरीली गैस होती हैं। उसमें उतरने पर व्यक्ति मर सकता है। फिर भी जानबूझकर वाल्मीकियों को गटर में उतार दिया जाता है। आखिर में वह इसलिए उत्तर जाता है क्योंकि वही उसको मात्र जीवन-यापन का साधन लगता है। जब सवर्ण जातियाँ व सरकार जानती है कि गटर के उत्पन्न गैस से व्यक्ति मार जाता है तो उसमें व्यक्ति को उतारने का अर्थ है जानबूझ कर उसे मृत्यु के मुँह में झोंक देना। अतः यह आरोप सत्य आरोप है कि वाल्मीकि जातियों की हत्या कर दी जाती है। कवि इसीलिए सवाल करता है कि कब तक मारे जाओगे। दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि विज्ञान के इस युग में ऐसे घिनौने कार्य व्यक्ति से करवाया ही क्यों जाता है? तीसरी और अहम बात, आखिर वाल्मीकि जातियों से ही घिनोंने कार्य क्यो करवाए जाते हैं? यही तो जातिवाद। यही तो है सवर्ण बरजोरी। यही तो है भेदभाव। इस कुप्रथा को खत्म किया जाना नितांत आवश्यक है।
स्वच्छता के कार्य स्वरूप पर सभी कवियों ने कलम चलाया है। थूक, गंदगी, कूड़ा, कचरा, मल, मूत्र, गोबर, गटर, शौचालय, सड़क, कालोनी, बस्ती, कोठी, गलियों, मृत जानवर, झाड़ू, तसला, पंजर, जूठन, ठेला, नाला, नाली, सूप, तांत, सुअर, लाश,शमशान, खून, मवाद, रक्त, वीर्य, मांस, मज्जा इत्यादि पर कार्य वाल्मीकि जातियों के नाम कर दिया गया है। लगभग सभी कवियों ने एक स्वर से वाल्मीकि जातियों की दशा, दुर्दशा, भौतिक परिस्थिति और मनोगत स्थितियों पर कविताएँ लिखी हैं। सभी झाड़ू, तसला, ठेला, पंजर, टोकरी और मैला छोड़कर हाथ में कलम पकड़ने की पुरजोर आह्वान कर रहे हैं। सभी एक स्वर से अपील कर रहे हैं कि नस्लवादी और वर्चस्वदियों कभी भी दलित जातियों पर दया नहीं कर सकते हैं। दलित जातियों को अपना स्वाभिमान का मार्ग स्वयं बनाना होगा और यह तभी संभव हो सकता है जब वाल्मीकि जातियाँ गंदे कार्य को स्वयं और स्वेक्षा से करना बंद करें। वाल्मीकि जातियों को जातिगत कार्य और धंधे को अपना कार्य और अपना धंधा मानना बन्द कर देना होगा। डॉ. आम्बेडकर ने भी यही कहा है। “मैं भंगी हूँ” के लेखक भगवान दास ने भी यही कहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी गंदे कार्यों को करने से मना किया है। वर्तमान में मोहनदास नैमिशराय, कँवल भारती, जयप्रकाश कर्दम, श्योराज सिंह बेचैन, सुशीला टाकभौंरे, रजतरानी मीनू, डॉ. पूनम तुषामड़, जयप्रकाश वाल्मीकि, तारा परमार, कर्मशील भारती, कुसुम वियोगी इत्यादि चिंतकों ने एकसुर में यही कहा है कि वाल्मीकि जातियों को झाड़ू, मल, गटर शौचालय आदि का कार्य करना बन्द कर देना चाहिए।
इस संग्रह में एक तीसरी जोरदार बात है जिसे स्वयं पुस्तक के संपादक ने उठाया है। वे “खोखली बातें” नाम की कविता लिखते हैं। उस कविता की छाया उनके संपादकीय के इन पंक्तियों में दिखाई पड़ता है, “क्या यह सब उनको नज़र नहीं आता? सफाई कर्मचारियों के मात्र पैर धो देने से इस वर्ग का भला नहीं हो सकता है साहब! इस समाज के सर्वांगीण विकास पर भी ध्यान देना होगा। मात्र बातें करने से किसी का भला नहीं हो सकता। हमारे देश के एक संत मैलाप्रथा जैसे निदनीय कार्य करने को आध्यात्मिक सुख की अनुभूति बताते हैं तथा मैला ढोने व सफाई के कार्य को सेवा का कार्य मानते हैं। स्वच्छता को सेवा बताने वाले घोर जातिवादी हैं। सदियों से जघन्य और अमानवीय कार्य को दलितों में पददलित जाति विशेष पर थोप दिया गया है, जिसे सफाई समुदाय कहा जाता है। यदि इस कार्य को करने से सुख प्राप्त होता है तो बहरूपियो अब इस कार्य को खुद करो और इस इस सुख का भरपूर आनंद लो।”
यह न समीक्षा है न आलोचना, इस पुस्तक पर यह एक जरुरी विशेष टिप्पणी मात्र है। इसमें अनेक युवा कवियों की अच्छी कविताओं की अभी चर्चा नहीं हो पाई है। बाद में मैं इस पुस्तक का सिलसिलेवार अध्ययन प्रस्तुत करूँगा। वाल्मीकि जातियों के विभिन्न कार्य, स्वरूप, मन, मस्तिष्क, दबाव, किंकर्तव्यविमूढ़ता, जातिवादी संस्कृति, रुझान, विज्ञान आदि पर संग्रह में शामिल कवियों के उद्देश्य, भाषा, कला, काव्य, नैरेशन, शैली, संघर्ष, आंदोलन, एकरूपता, आम्बेडकरवादी विचार-संकल्प, राजनीति और साहित्य का अंतरसंबंध, लोकतांत्रिक विचार, संसदीय लोकतंत्र, बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग, डॉ. आम्बेडकर का राजकीय समाजवाद इत्यादि पर विचार किया जाएगा।
संपादक नरेंद्र वाल्मीकि एक प्रबुद्ध, संघर्षशील, व्यवहार कुशल शोध छात्र हैं। उनका शोध कार्य पूरा हो चुका है। अब वे समाज के निचले पायदान की जाति दलित जातियों पर शोध कार्य कर रहे हैं। उनका यह कार्य वैचारिक क्रान्ति में योगदान करेगा। वैचारिक क्रान्ति से उद्देश्य की एकरूपता और चिंतन की एकरूपता उत्पन्न होगी। नरेंद्र वाल्मीकि की मेधा प्रसंशनीय है। उम्मीद है नरेंद्र वाल्मीकि भविष्य में लोगों को एकसूत्र में बाँधने में सफल व्यक्तित्व ग्रहण करेंगे। इस संग्रह के संपादन में जिन अनेक कवियों का चुनाव किया है निश्चित यह एक चैलेंजिंग कार्य है। कोई प्रसंशा करे न करे लेकिन अनेक छूटे हुए कवियों से नाराज होंने का जोखिम भरा हुआ है। इस संग्रह के लिए जितने भी कवियों को नरेंद्र वाल्मीकि ने संग्रह में लिया है उनकी कविताएँ उत्कृष्ट कविताएँ हैं। कवि नरेंद्र कुमार वाल्मीकि, जो विज्ञान सम्मत विचारों के समर्थक हैं, को वैचारिक आंदोलन की कविताओं के संग्रह के लिए बहुत-बहुत बधाई।
पुस्तक : कब तक मारे जाओगे (जाति-व्यवस्था के घिनौने रूप को ढोने वाले समुदाय पर केन्द्रित काव्य-संकलन)
संपादक : नरेन्द्र वाल्मीकि
पृष्ठ संख्या : 240
मूल्य : ₹120
प्राकाशक : सिद्धार्थ बुक्स (गौतम बुक सेंटर), दिल्ली।
समीक्षक
आर. डी. आनंद
मो. 9451203713